Book Title: Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Bechardas Doshi, Tilakvijay
Publisher: Digambar Jain Yuvaksangh

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Page 56
________________ प्रारंभ किया गया है। साथ ही यहां पर मुझे यह भी बतला देना चाहिये कि टीकाकारने इस तरह का मूल को स्पर्श न करने वाला अर्थ करते हुए कई एक जगह तो अपने सम्प्रदाय से भी विरुद्ध कलम चला दी है। कहीं २ पर वे स्पष्ट रूप से स्खलित भी हो गये हैं। रा० रवजी भाई द्वारा छपे हुये आचारांग सूत्र में पृ० ११३ में ५५६ वीं कलम में, पृ० १९० मे ८२४ वीं कलम में और पृ० १९४ में ८४१ वीं कलम मे भिक्ष और भिक्षणी के आचार एक समान लिखे गये हैं। तथापि टीकाकारने उन कलमों के भाव को जिनकल्पियों के लिये घटाने का साहस करके स्पष्ठतया अपने साप्रदायिक सिद्धान्त का बाध किया है। क्योंकि श्वेताम्बर संप्रदाय मे पुरूष ही जिनकल्प के अधिकारी माने गये हैं और भिक्षुणी के लिये लिखा गया हो उसे जिनकल्पी का आचार मान लिया जाय तो फिर उसमे आये हुये भिक्षुणी शब्द के अर्थ को किस तरह संगत किया जाय? तथा जिस जिनकल्प के विच्छेद होने का श्रीजिनभद्रसरिजी ने जिन भगवान के नाम से दुर्भिनाद सनाया है उसे तो उसके साथ सम्बन्ध रखने वाले आचारो का उल्लेख सूत्रो एव अन्य ग्रन्थों मे किस तरह हो सकता है? इस प्रकार अपने समय के संप्रदाय की रक्षा करते हये टीकाकारने "जिण कप्पिया इत्थी न होई" अर्थात् स्त्री जिनकल्पी नहीं हो सकती, इस प्रकार के साप्रदायिक सिद्धान्त को वाधित किया है। यह बात उनके लिये 'अजा निरासे उष्ट्रप्रवेश जैसी हुई है। इस तरह मात्र साप्रदायिक मोह मे लिये ही प्रवचन के ऐसे अनेक व्यापक सूत्र भी विपर्यास को प्राप्त हो गये हैं। परन्तु संप्रदाय का मोह इतना कीमती है कि उसकी रक्षा के लिये ऐसे अनेक विपर्यासो का हिसाब कुछ भी नहीं गिना जाता मैं अपने मान्यतम पूर्वजों की ऐसी स्थिति को ही तमस्तरण कहता हूँ और इसी हकीकत को साहित्य का विकार कहता हूं। यहा पर पाठक स्पष्टरूप से समझ सके होगे कि जैनसाहित्य में विकार होने से उसकी हानि का प्रथम फल तो यह श्वेताम्बरता और दिगम्बरता की निरर्थक किन्तु भीषण लडाई है। इस सम्बन्ध में यहां पर यद्यपि अधिक लंबा होने के भय से इस विषय को मैं यहा ही खतम करना चाहता हूँ। फिर भी इतना तो मुझे अवश्य कह देना पडता हे, कि यह पूर्वोक्त श्वेताम्बरता और दिगम्बरता का झगडा परस्पर सिर्फ मुनियो का ही था और है, परन्तु उन्होने श्रवकों की क्रियापद्धति में भी उसे सम्मिश्रित कर उस पवित्र क्रियापद्धति को भी लांछित किये बिना न छोडा। ऐसा करने से श्रावको की पारस्परिक एकता मे भग पड़ने के कारण उन्हे भी अपने समान ही कलही और मताग्रही बनाने का प्रयास किया है। इससे वर्तमान श्वेताम्बर दिगम्बर के महासमरांगण का सेना पतित्व भी उन्ही और उनकी वर्तमान सन्तानो को ही शोभता है। इस विषय को मैं चैत्यवाद नामक

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