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चैत्य में और मठ में रहते हैं, पूजा करने का आरंभ करते हैं, अपने लिये देवद्रव्य का उपयोग करते हैं, जिनमंदिर और १ शालायें चिनवाते हैं, इन मे से कितने एक कहते हैं कि श्रावको के सामने सूक्ष्म बातें न कहनी चाहियें, मुहूर्त निकाल देते हैं, निमित्त २ बतलाते है और भभूती भी डालते हैं। वे रंगविरंगे सुगन्धित तथा धूपित वस्त्र पहनते हैं, स्त्रियों के समक्ष गाते हैं, साध्वियो द्वारा लाये हुये पदार्थ खाते है, तीर्थपंडों के समान अधर्म से धन का सचय करते हैं, दो तीन दफा खाते हैं, ताबूल वगैरह ग्रहण करते हैं, घी दूध फल फूल और सचित्त पानी का भी उपयोग करते हैं, जैनार आदि के प्रसंग पर मिष्ट आहार प्राप्त करते हैं, आहार के लिये खुशामद करते हैं और पूछने पर भी सत्य धर्म नही बतलाते। सुबह सूर्योदय होते ही खाते हैं, बारवार खाते हैं, विगइयो को खाते हैं, लोच नही करते, शरीर से मैल उतारते हैं, साधुओ की प्रतिमा को वहन करते हुये शरमाते हैं, जूता रखते हैं और बिना कारण भी कमर पर वस्त्र लपेटते हैं । स्वय भ्रष्ट होते हुये भी दूसरो को आलोचना देते हैं, थोडीसी उपधिकी भी पडिलेहण नही करते, शय्या, जोडा
वाणी की भी भुलाते हैं। इस दान देने की हकीकत को उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने भी अपने द्वात्रिशिका नामक ग्रन्थ मे याद की है। इस विषय मे मेरा नम्रमत है कि जब तक यह शतार्थीवाला उल्लेख अप्रामाणिक न साबित हो । तब तक शोधक विद्वान उन्हे चैत्यवासी सम्प्रदाय के कहे तो यह अयुक्त न होगा। ऐसा कहने में हम उनका अपमान नही करते। इस विषय में विशेष अन्वेषण करके जो तथ्य मालूम देगा सो प्रगट करने की इच्छा है।
१ "वर्तमान काल मे धर्मगुरू बडी २ पाठशाला वगैरह सस्थाये स्थापित करते हैं और उसके बहिaट-प्रबन्ध कार्य मे भी हस्तक्षेप करके सस्थाओं की दुर्दशा करते हैं यह बात सबके प्रत्यक्ष ही है । यह रिवाज शालाये चिनवाने से भी खराब है * श्रावको को सूत्र न पढ़ने देने की बात का मूल इसी उल्लेख मे समाया हुआ है। अपने भक्त श्रावको को सट्टा करने की सलाह देते हुये, सट्टा करने के लिये दूसरे गाव भेजते हुये और लोटरी या सट्टे मे भक्तजन को लाभ प्राप्त हो इस लिये स्वयं जाप करते हुये कई एक मुनियों को मैंने प्रत्यक्ष देखा है । ३ जिन्हे सन्ताने न होती हो ऐसी स्त्रियो पर तो गुरूजी के हलके हाथ से वासक्षेप पडता हुआ आजकल भी सब अपनी नजर से देखते हैं। यह वासक्षेप भभूती का भाई है। पालीताना और अहमदाबाद जैसे साधुओं के अखाड़ेवाले स्थलों में इस रिवाज का अनुभव होना सुशक्य है वर्तमान कालीन धर्मगुरू इन प्रतिमाओं को धारण करते हुये बतलाते है? और ऐसा कहकर पूज्य श्री हरिभद्रसूरि को अपमानित करते मालूम होते है। बिना कारण कमर पर वस्त्र लपेटने की रीति को अनाचार कहा गया है, तब फिर वस्त्रो की गठडिया रखने वाले आधुनिक मुनियो को श्री हरिभद्रसूरि जी किन शब्दो से विभूषित करते?