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भावी प्रजा को सशस्त्र बनाने की प्रवृत्ति प्रचलित रक्खी है, इस बात के लिये उन्हें कितना अधिक धन्यवाद !!! इन परिवर्तनों के बीच में ऐसे महापुरूष भी हो गये हैं जिन्होंने इस गिरते हुये समाज को बचा लिया है और क्रियोद्वार करके फिर से यथास्थान पर लाने का प्रबल प्रयत्न भी किया है, एवं कई एक ऐसे महात्मा भी हो गये हैं कि जिन्होंने गिरते हुये समाज की ओर दुर्लक्ष करके अपनी सत्ता को विशेष जमाने के लिये ही प्रयत्न सेवन किया है। विक्रम संवत् १३०२ में क्रियोद्धारक जगच्चंद्रसूरि के गुरूभ्राता सुखशील - विजयचन्द्रसूरि ने निम्न लिखित उद्घोषणा करके अपनी सत्ता को अचल
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बनाया था।
१ * गीतार्थ वस्त्रो की गठडियां रख सकते हैं।
"हमेशह घी दूध खा सकते हैं। "कपडे धो सकते हैं।
"फल तथा शाक ले सकते हैं।
४.
५.
"साध्वीद्वारा लाया हुआ आहार खा सकते हैं और
" श्रावमो को आवर्जित करने खुशी करने-अपने पक्ष मे रखने के लिये उनके साथ बैठकर प्रतिक्रमण भी कर सकते हैं, इत्यादि (धर्मसागरजी की शोधित पट्टावली ४५ वाँ देवेन्द्रसूरि का प्रकारण ) इस तरह भगवान पार्श्वनाथ के ऋजुप्राज्ञ शिष्यो के आचार जैसे सुख शील आचारों को और फिर एक आचार्य द्वारा मुद्रित होकर उद्घोषित होते आचारों को देख कर कौन गीतार्थ घी दूध खाना छोड़ देगा? कौन-सा गीतार्थ फल और शाक न खायगा ? कौन-सा गीतार्थ स्वयं गौचरी जाने के तकलीफ उठावेगा और कौन - सा गीतार्थ श्रावकों का मक्खन त्याग देगा? मेरी मान्यतानुसार पूज्य श्री जगच्चद्रसूरि ने क्रियोद्धार करके जो उग्रत्याग की स्थापना करने का प्रयास किया था विजयचन्द्र ने उस पर पानी फिराने जैसा करके निर्ग्रन्थो के विशुद्ध आचारो को धूल मे मिलाने का खुला प्रयत्न किया था। ऐसा होना उचित ही था, क्योंकि 'विवेकभ्रष्टाना भवति विनिपात. शतमुख:' इस प्रकारकी प्राकृतिक फौजदारी से कौन-सा बलवान है जो बेदाग बच सके ? इसी तरह दिगम्बरों में भी छोटेबड़े अनेक पथ प्रचलित हो गये थे कि जो आज तक भी
*विजय चद्र सूरि ने ये उद्घोषणायें मात्र गीतार्थों के लिये ही की है यह पट्टावली के उल्लेख से स्पष्ट मालूम होता है। परन्तु आधुनिक समय में कोई विरला ही साधु होगा जो पूर्वोक्त प्रत्येक उद्घोषणा की तामील न करता हो, अथवा यह समझना चाहिये कि वर्तमान में विद्यमान समस्त साधु मात्र गीतार्थ है । ऐसा न हो तो आज घर घर के जैनचार्य ब्राह्मणों के बनाये हुये शास्त्रविशारद, न्यायविशारद, जैन धर्म भूषण, उपाध्याय समान भरमार कहा हो? (वाह रे जैनियों के पचम काल तुझे धन्य है)