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१३८१-१४०४-१४१४) (७) "छत्तपलास. चेइये” (पृ० १५३-१६४ ) (८) "पुफ्फबईए चेइये" पृ० १८२-१८६-१८९-१९०-१९२-८३६) (९) "नंदणे चेइए" (पृ० २११ - २२५) (१०) पुणणभदे चेइए" ( पृ० ३०९८३८-८४२-११२४-११२७) (११) "माणिभदे चेइए" (पृ ( ७१३) (१२) "दृइपलासे चेइए" (पृ( ७३८- ८७०-९३४ - १४२२) (१३) "बहुसालए चेइए" ( पृ० ७८७-७८८-७९३-७९६-८०-८०२-८०४-८३१-८३४८३७) (१४) "कोट्टए चेइए" (पृ० ८३८-८४२-९७७-९७८-१२००१२३३-१२३६-१२५०-१२५३ - १२६५) (१५) "सखवणे चेइए" (पृ० ९७०-९७४) (१६) "चंदोत्तरायणे चेइए" ( पृ० ९८७ ) ( १७ ) "मंडिकुचिसि चेइए" (पृ० १२४२) (१८) "चंदोयरणसि चेइए" ( पृ० १२४२) (१९) "कॅडियायणसि चेइए" ( पृ० १२४३) (२०) "सालकोट्ठयए चेइए" (पृ० १२६५-१२६६-१२६८- १२७०) (२१) "एगजबुए चेइए" (५० १३१०
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भगवती सूत्र मे सब जगह दिये हुये पूर्वोक्त चैत्य शब्द का अर्थ टीकाकार ने भी व्यन्तरायतन ही समजने का आग्रह किया है। वे लिखते हैं कि "चितेभांव. कर्म वा चैत्यम् तच्चेह व्यन्तरायतनम् नतु भगवता मर्हतामायतनम् " ( पृ० ५) प्रसिद्ध कोशकार श्री हेमचन्द्र सूरिजी लिखते है कि "चिति - चित्या चितास्तुल्या " ( मार्त्यकाण्ड ३९) चिति चित्या और चिता, ये तीनो ही शब्द समानार्थक हैं, और इन तीनों का अर्थ 'चे' होता है। ऊपर बतलाये हुये टीका के उल्लेख मे टीकाकारने इस चिति शब्द हीउपयोग किया है और ऐसा करके यहां तो 'चत्य' शब्द की उत्पत्ति, व्युत्पत्ति, प्रवृत्ति और अर्थ सब कुछ प्राचीन और प्रधान बतलाया है। अर्थात् इस उल्लेख ने चत्य के प्रधान एव यौगिक अर्थ को ही दृढ़ किया है और चैत्य शब्द को लोक प्रवाह से मुक्त करके स्वतंत्र कर दिया है।
यह बात तो मैं प्रथम ही सूचित कर चुका हूँ कि ज्ञाताधर्म कथा सूत्र एवं अन्य अगसूत्रो मे भी जहा २ पर चैत्य शब्द का उपयोग किया गया है वहां प्राय विशेषत उसका व्यन्तरायतन अर्थ किया है। उन सूत्रो मे जिन २ स्थानो मे वह शब्द नियोजित किया गया है वे स्थान नीचे मुजब हैं।
(६) ज्ञाताधर्म कथा सूत्र - (१) "पुण्णभद्दे चेइए" ( समिति पृ० ३-७-१९३-२२२-२५२) (२) "गुणसलए चेइए" ( समिति पृ० ११३९-४६-५५-७१-७८-२४१-२४६-२५१) (३) "अंबसालबणे चेइए" ( समिति पृ० २४८ ) (४) "कोट्ठए चेइए" ( समिति पृ० २५१) (५)