Book Title: Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Bechardas Doshi, Tilakvijay
Publisher: Digambar Jain Yuvaksangh

View full book text
Previous | Next

Page 79
________________ मिलते जा रहे हैं। परन्तु किसकी ताकत हैं कि साहित्य विकार को रोक कर मूल को वास्तविक रूप में कायम रख सके ? हा !!! मैं भूलता हूँ कि मूल तो सदा धूल में ही रहता है, अतः वह बिलकुल गल सड़ जाने के ही योग्य है और उसमें से प्रकृति देवी सुन्दर वृक्ष को जन्म देती है। वैसे ही हमारे सद्भाग्य से किसी सुन्दर वृक्ष की उत्पत्ति के लिये ही हमारे जीते जागते मूल जड़ें सड़ रही हों तो यह संभवित और सुघटित है। इस दूसरे मुद्दे की चर्चा से आपके ध्यान में यह बात आ गई होगी कि चैत्य और उसके प्राचीन एवं प्रधानार्थका स्वरूप क्या है ? उसमें परिस्थिति के अनुसार जो २ परिवर्तन हुए हैं और अन्त में उससे जो विकार पैदा हुआ है वह भी आपकी समझ में आ गया होगा। इतने से भी यदि आप साहित्यविकारजन्य अपने मूर्तिपूजा के अनादि वादके एकान्त को कुछ ढीला करेंगे और भगवान महावीर के अनेकान्त मार्ग पर दृष्टि रख कर अमूर्तिपूजकों के साथ प्रेमका वर्ताव करेंगे तो मैं अपने इस निबन्ध के लिये किये हुये जागरणों को भी सफल गिनने की उचित कामना करूंगा।

Loading...

Page Navigation
1 ... 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123