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चितिका चे बनाओ, एक तीर्थंकर की, दूसरी गणधरों की और तीसरी सब साधओं की। उसमें अग्नि प्रगट करो और बाद मे जले से ठडी करो। फिर उन शकादि देवो ने यथोचित रीत्या उस पवित्र भस्म मे से श्रीजिन्भगवानों की अस्थियां चुन ली (इत्यादि) इसके बाद शक्रेन्द्र ने आर्यरीत्यनुसार देवताओ से कहा कि हे देवो ! तुम बड़े से बड़े रत्नमय तीन स्तूप रचो, एक तीर्थकर की चिता पर दूसरा गणधरो की चिता पर और तीसरा साधुओ की चिता पर ! देवों ने शक की आज्ञानुसार वहाँ पर तीन स्तूप बनाये और फिर वे देव अपने २ स्थान पर चले गये। अपने स्थानो मे जाकर उन अस्थियो को गोल डब्बे में रखकर उन्होने वे गोल डब्बे अपने २ चैत्यस्तभ मे रक्खे'। टीकाकार भी इसी अभिप्राय का समर्थन करते है। ततश्चितिकानिर्वापणदन भगवतस्तीर्थकरस्य xx सक्थि शक्रो ग्रहाति xविद्याधराश्चिताभस्मशेषामिव गृहन्ति x भस्मानि गृहीते अखातायामेव गताया जाताया मा भूत् तत्र पामरजनकृताशातनाप्रसंगः, सातत्येन तीर्थप्रवृत्तिश्च स्यादिति स्तूपविधिमाह त्रीन् चैत्य स्तूपान कुरूत चितात्रयक्षितिषु इत्यर्थ " (अजीम० पृ० १४०-१४७) जो भाव उपर्युक्त मूल पाठ मे बतलाया है उसी भाव का अक्षरानुवाद टीकाकार ने किया है। इतना विशेष दर्शाया है कि भगवान के दाहस्थान की आशातना न हो और निरन्तर तीर्थप्रवृति हो इसी कारण चितास्थान पर चैत्यस्तूप बनाये जाते है। इस प्रकार टीकाकार ने चैत्य शब्द के प्रधानार्थ की पूज्यता भी बतलाई है। इसी तरह का एक दूसरा उल्लेख ज्ञाताअग सूत्र की टीका जो समिति द्वारा छपी है पृ० १५५ मे मिलता है, उसे पाठक स्वय देख ले।
अब तो पाठको का मन ठडा हो गया होगा, चैत्य शब्द के प्रधान अर्थ के विषय मे एव जैनी पद्वति के सम्बन्ध मे भी पूर्वोक्त अनेक प्रमाणो द्वारा उसकी असलीयत को पाठक भली भाँति समझ गये होगे। अब मैं आपको यह बात भी स्पष्टतया कह देना चाहता हूँ कि इस चैत्य शब्द के प्रधानार्थ मे ही मूर्तिपूजा की जड समाई हुई है। मूर्ति का मूल इतिहास चैत्य से ही प्रारभ होता है और मूर्ति का प्रथम आकार भी चैत्य ही है। वर्तमान समय मे जो मूर्तिया देख पडती है वह उत्क्रान्ति की दृष्टि से विकाश को प्राप्त हुई एक प्रकार की शिल्प कला का नमूना है। जो मूर्तिया श्वेताम्बर जैनियों के अधिकार में हैं उनका सौन्दर्य और शिल्प उन्होने बनावटी तिलक व चक्षु-आंखे लगाकर तथा इसी प्रकार के अन्य शिष्ट असंगत और अशास्त्रीय और अशास्त्रीय आचरणों द्वारा नष्ट भ्रष्ट कर डाला है। तथापि वे मूर्तिपूजकता का दावा करते हैं, मैं इसे धर्मदंभ और ढोंग समझता हूँ। अपने पूज्य देव की मूर्ति को पुतली के समान अपनी इच्छानुसार नाच नचाते हुये भी
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