________________
59
किया हुआ चैत्यस्तंभ शब्द भी उसी अर्थ को सूचित करता है जो चैत्य का प्राचीन और प्रधान अर्थ है। टीकाकार महाशयने भी यहा पर उसी मुख्य अर्थ का अनुसरण किया है ( सुधर्मसभामध्ये षष्ठियोजनमानो माणवको नाम चैत्यस्तमोऽस्ति तत्र वज्रमयेषु गोलवद् वृत्ता वर्तुलाः ये समुद्रका भाजनविशेषाः तेषु जिनसक्थीनि + ++ तीर्थकराणं x अस्थीनि प्रज्ञप्तानि " ) स० पृ० ६४ ) अर्थात् सुधर्म सभा मे एक चैत्यस्तभ है, उसमें वज्रमय गोलाकार भाजन में तीर्थकरों की हड्डिया रक्खी हुई बतलाई है" टीकाकारने इस स्तभ की ऊंचाई ६० योजन बतलाई है, पाठको को इस तरफ ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह देवताई स्तभ है, मैं तो उसे ६० योजन के बदले ६०००० योजन ऊंचा मानने के लिये भी तैयार हूँ?
(२) "णायाधम्मकहासु ण णायाणं xxx चेइआइ " - स० पृ० ११६) (३) "उवासगइसासु णं उवासगाणं xxx चेइयाई' - (स० पृ० ११९) (४) x अंतगडाण xxx चेइयाइ ) - (स० पृ० १२१ ) (५) "अणुत्तरोववाइयाणं x चेइयाई” - स० पृ० १२२) तथा (६) दुहविवागाणं x चेइयाई, सुहविवागाणं चेइयाइ" स० पृ० १२५ ) इन पाच स्थानो मे चैत्य शब्द का उपयोग किया गया है । समवायाग सूत्र मे एक ऐसा प्रकरण है कि जिसमें बारह अंगों में दिये हुये विषयों की सूचि दी हुई है । वहा पर ही ये पूर्वोक्त पांचों उल्लेख भी दिये हैं। उन मे बतलाया है कि ज्ञाताधर्म कथा सूत्र में ज्ञातों के चैत्य, उपासक दशा सूत्र मे उपासको के चैत्य, अतकृद्दशा सूत्र मे अतकृतो के चैत्य, अनुत्तरोपपातिकदशा सूत्र मे अनुत्तरौपपातिको के चैत्य और विपाक सूत्र में दुख विपाक वालों के एव सुख विपाक बालो के चैत्य बतलाये है" । इन उल्लेखो मे भी चैत्य शब्द का वही प्रधान अर्थ चिता पर चिना हुआ स्मारक ही घट सकता है। अर्थात् ज्ञातशब्द का टीकाकार द्वारा किया गया उदाहरण अर्थ यदि मान भी लिया जाय तो ज्ञातो के चैत्यो का अर्थ इस प्रकार होता है - ज्ञाता सूत्र मे जिसके उदाहरण दिये हैं उसके चैत्यों का भी उसमें वर्णन किया है और वे चैत्य चिता पर चिने हुये स्मारक के सिवाय अन्य संभवित नही होते। इसी तरह उपासक दशा सूत्र में निरूपित उपासको के चैत्य, अकृद्दशा सूत्र में वर्णित अंतकृत पुरुषो के चैत्य, अनुत्तरौपपातिक सूत्र में उल्लिखित अनुत्तर विमान गामियों के चैत्य और विपाक सूत्र में दर्शाये हुये उन २ दुखी और सुखी पुरूषो के चैत्य बतलाये हैं। इस समस्त उल्लेखो का समन्वय भी ज्ञातो के चैत्यो के समान ही हो सकता है और समन्वय का यही प्रकार तथ्य एव इष्ट भी है। टीकाकारने इस उल्लेख के चैत्यशब्द को व्यन्तरायतन वाची कहा है, जो हमारी व्याख्या के अनुकूल होता है। (स० पृ० ११७-११९-१२१-१२२-१२६) परन्तु यह अर्थ इस प्रकरण में संगत