Book Title: Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Bechardas Doshi, Tilakvijay
Publisher: Digambar Jain Yuvaksangh

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Page 67
________________ 58 को ही पुष्ट करता है। इसके अलावा सूत्रकृतांग, स्थानाग, समवायांग व्याख्याप्रज्ञप्ति, ( भगवती) ज्ञाता धर्मकथा, उपासकदशा, अंतकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिक दशा, प्रश्वव्याकरण और विपाकश्रुत, इन समस्त सूत्रों में भी जहां २ पर मात्र चैत्यशब्द का उपयोग किया गया है वहां उसका व्यन्तरायतन ही अर्थ किया गया है और इन अंगो में मात्र दो चार स्थल ही ऐसे हैं कि जहा चैत्यशब्द से 'जिन चैत्यं' समझा जा सकता है, तथा जहा पर 'अरिहतचैत्य' ऐसा स्पष्ट पाठ मालूम होता है, वहां तो वह अर्थ अरिहंतो की चिता पर चिना हुआ स्मारक चिन्ह) अनायास सिद्ध ही है। (यद्यपि टीका कारों ने जिन चैत्य या अरिहन्त चैत्य का अर्थ जिन प्रतिमा या जिनमंदिर किया है, सो सही है, परन्तु अगों में आये हुये चैत्यशब्द का इस तरह अर्थ करते हुये उन्होंने जो विषम भूल की है उसे मैं अब आपके सामने रक्खूंगा) ऊपर चैत्यशब्द का उपयोग किया गया है उन सब स्थानों का सूत्र पाठ इस प्रकार है। (२) सूत्र कृताग- " (१) मगल देवय चेइय पज्जुवासति" ( नालदीय अध्ययन, स० पृ० ४२५) अग सूत्रों में जहां पर अमुक पुरूष, अमुक व्यक्ति का आदर करता हो ऐसा उल्लेख आता है वहा सब जगह यह (मगल देवय चेइय पज्जुवासति ) उल्लेख दिया हुआ है। इसका अर्थ यह होता है कि जो उपासक है वह अपने उपास्य की मगल के समान वा मागलिक रीति से और देवता के समान तथा चैत्य के समान या देव के चैत्य के समान पर्युपासना करता है। अर्थात् जैसे धर्मवीर और कर्मवीर पुरूषो के चैत्य देव हुये बाद उनकी चिता पर चिनाये हुये स्मारक पर्युपास्य हैं त्यों यह उपास्य भी उस उपासक को पर्युपास्य है। (२ - ३ ) ( " मगल देवय चेइयं पज्जुवासामि " ) (स० पृ० १४१ और २४४) इसका भी अर्थ ऊपर बतला दिया गया है। ( ४ ) ( " तासि ण x उवरि चत्तारि, चत्तारि, चेतितभा xxx तेसि ण चेतित भाग पुरतो चत्तारि मणिपेढिआओ, तासि ण x उवरि चतारि चेतितरूक्खा ") (स० २२९ - २३० नदीश्वर विचार ) इस उल्लेख मे चैत्य 'स्तूप शब्द का उपयोग किया गया है। इसका अर्थ भी उपरोक्त प्रकार से ही समझना चाहिये, अन्यथा इस शब्द का इस प्रकरण मे समन्वय होना संभवित नहीं है। (४) समवायाग - (१) ("सुहम्माए सभाए माणवए चेइयक्खभे xxx वइरामएस गोवट्टसमुग्गएसु जिणसकहाओ") स० पृ० ६३ ) यहां पर उपयुक्त

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