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विद्यमान हैं। द्राविडसघ, यापनीयसंघ, काष्ठासघ, माथुरसघ, भिल्लकसंघ, तरापथ, बीसपथ, तारणपथ और भट्टारकप्रथा वगैरह। परिणाम में दोनों पक्षो की भयकर हानि हुई है और वह यह कि जो आचार चारित्र को उज्जवल करके आत्मा को बलवान बनाते थे उन का वर्तमान समय में दोनों पक्षो मे सर्वथा अभाव हो गया और धर्म सिर्फ एक निर्वाह का साधन जैसा बन गया है। श्रावको मे धामिक वैरभाव पूर्णजोश से बढ़ता जा रही है और दिन प्रतिदिन कलहकी सामग्रियो में होती हुई वृद्धि को रोका नही जा सकता। मैं चाहता हैं कि पूर्वोक्त प्रत्येक मत का यहा पर सविस्तर इहितास दू परन्तु लिखते समय मेरे पास उतना वक्त और उतनी सामग्री न होने से यह बात मझे और किसी प्रसग पर छोड देनी पड़ती है। मेरी नम्रमान्यतानुसार जिस समय साधु चैत्यवासी हुये उस वक्त साधुओं के बन्धारन को जबरदस्त धक्का पहचा है और वह यहा तक कि आज तक भी उसका प्रतिकार करना बिलकुल अशक्य हो गया है। चैत्यवास हुये बाद बहुत से महापुरूषो ने उसका प्रतीकार करने के लिये अनेकानेक भागीरथ प्रयत्न भी किये परन्तु उनसे उस चैत्यवासके विषमय असरका समूल उन्मलन न होसका, यह भी हमारे दुर्भाग्य की निशानी है। इच्छा थी कि इस चैत्यवास का व्योरेवार उल्लेख करू परन्तु मुझे विवश होकर उसे सक्षिप्त करना पड़ता है। जो पाठक इस विषय को विशेष जानना चाहते हो उन्हे मात्र एक सघपट्टका ग्रन्थ ही देख लेने की प्रेरणा करता है। इस विषय को लिखते हुये 'सबोध प्रकरण, ग्रन्थ पृ० स० २-१३-१८ मे श्रीहरिभद्रसूरिजी लिखते है कि "ये लोग __*श्री हरिभद्रसरिजी स्वय भी चैत्यवासी मप्रदाय के थे। उनमे सिर्फ इतना ही फर्क था कि वे सदाचारी, शास्त्रभ्यासी और स्विहितानसारी थे उस समय उनके संप्रदाय की स्थिति तो ऊपर लिखे मजब ही चली आ रही थी। वह स्थिति विपरीत मालूम होने से उन्हें ऐसा लिखना पडा है। इसीसे यह साबित होता है कि वे कट्टर चैत्यवासी न थे, परन्तु उस सप्रदाय में से थे। वर्तमान यतिसप्रदाय मे भी यह बात देख पडती है कि उसका विशेष हिस्मा अनादरनीय कोटिका है तथापि अल्प प्रमाण में भी उसमे सदाचारी और सविहितानसारी यति विद्यमान हैं। श्री हरिभद्रसरिजी के विषय में 'शतार्थी, नामक ग्रन्थ मे श्री हेमचद्राचार्य के समसमयी सोमप्रभसरिजी लिखते हैं कि "हरिभद्रसरि मध्यान्ह समय द स्थिति याने दुखी या रक लोगो को भोजन देते थे। सोमप्रभाचार्य जी ने अपनी शतार्थी मे हभिद्रजी को कामद विशेषण देकर उपरोक्त अर्थ लिखा है। कामद शब्द की टीका करते हुये उन्होने इस प्रकार लिखा है।
कामद? शख वादन परस्सर प्रातर्लोकाना स्वपर-शास्त्र-मशयच्छेदनरूपान् मध्याहे प्रतिवादिना वाद विनोद रूपाश्व (कामान्) ददाति-इति (कामद।)"
श्रीहरिभद्रजी की वौद्ध साधओ के जैसे मात्र यह एक दान देने के आचार पर से मे उन्हे चैत्यवासी सम्प्रदायके कहने की हिम्मत करता हैं। अन्यथा उनके ग्रन्थ आज गणधरो की