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विषय का उल्लेख मिलता है कि "ज्ञातपत्र (वर्धमान) के निर्ग्रन्थों मे मतभेद हआ था।" उपरोक्त जिनकल्प विच्छिन्न होने का जो उल्लेख किया गया है, उसका अभिप्राय यह है कि जम्बस्वामी के पीछे अर्थात वर्धमान के निर्वाण बाद ६४ वे वर्ष मे उनके मनियो मे दो दल हो गये थे। जिनमे से एक नरम दल यह कहता था कि अब जिनकल्प विच्छेद हो गया है। इसलिये हम उसका आचरण कर ही नहीं सकते। दूसरा गरम दल जिनकल्प का पक्षपाती था और जिनकल्प के आचरण का हिमायती था। इन दोनो दलो के मतभेद का ही उल्लेख बौद्ध ग्रन्थो मे हुआ हो, ऐसा इस गाथा के "जंबुम्मि वच्छिन्ना" पद पर से हम सरलता पूर्वक अनमान कर सकते हैं। इस विषय को दिगम्बरो की पट्टावली भी पुष्ट करती है। श्वेताम्बरो और दिगम्बरों की पट्टावली मे श्री वर्धमान, सुधर्मा तथा जम्बस्वामी तक के नाम समान रीति से और एक ही क्रम से उल्लिखित पाये जाते हैं, परन्तु उसके बाद के आने वाले नामो मे सर्वथा भिन्नता प्रतीत होती है और वह भी इतना विशेष भिन्नत्व है कि जम्बस्वामी के बाद उनमे से एक भी नाम पूरे तौर पर नहीं मिलता। इस प्रकार जम्बूस्वामी के बाद ही ये पट्टावलिया जुदी २ गिनी जाने लगी। यदि इसका कोई कारण हो तो वह एक मात्र यही है कि जिस समय से सर्वथा जुदे २ पट्टधरो के नामो की योजना प्रारभ हुई-उस समय जम्बस्वामी के निर्वाण बाद-वर्धमान के साधुओ मे भेद पड़ चुका था। वह पडा हआ भेद धीरे २ द्वेष व विरोध के रूप में परिणत होता रहा। उस समय जो स्वय मुमुक्षु पुरूष थे वे तो यथाशक्य उच्च त्यागाचरण मेवन करते थे, और जो पहले से ही सुखशीलता के गुलाम बन चुके थे, वे कुछ मर्यादित छुट रखकर पराकाष्ठा के त्याग की भावना रखते थे। अर्थात् जम्बूस्वामी के बाद भी उन मुमुक्षाओ मे से कई एक तो भगवान महावीर के कठिन त्याग मार्ग का ही अनुसरण करते थे और कई एक जिन्होने परिमित छूट ली थी, वे कदाचित् अथवा निरन्तर एकाध कटिवस्त्र रखते होगे, पात्र भी रखते होगे, तथा निरन्तर निर्जन वनों मे न रह कर कभी प बस्तियो मे भी रहते होगे। मुझे उस समय का कुछ प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है, तथा पिताश्री हरिभद्रसूरि की आगे बतलाई हुई गाथा पर से और अपनी बुद्धि से इतनी तो कल्पना कर सकता हूँ कि मुमुक्षु पुरूष सयम निर्वाह के लिये इससे अधिक छट ले, यह मैं मान नही सकता। उन ममक्षओ मे जो मध्यम वर्ग था याने जो पूर्ण ममक्ष न था परन्तु आज कल के मुनियो के समान मताग्रही था वह किसी तरह अपनी विद्यमानता को यावत् चन्द्र दिवाकर स्थापित करना चाहता था, अर्थात् उनमे से एक पक्ष वस्त्रपात्रवाद मे ही मुक्ति की प्राप्ति देखता था और दूसरा पक्ष मात्र नग्नता मे ही मोक्ष मानता था। त्याग को आचार मे रखने की बात दूर रही परन्तु अपनी २