Book Title: Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Bechardas Doshi, Tilakvijay
Publisher: Digambar Jain Yuvaksangh

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Page 20
________________ आहारको पचा कर उसमें के सार हिस्सेको खून रूप में, शुक्र रूप में, या पित्तादि रूपमें परिणमित करता हो और उसके द्वारा उस मनुष्य के अवयव पुष्ट होते रहने के कारण उसके मुख पर लालिमा आ जाने से उस परिवर्तन का नाम शरीरिक विकाश कहलाता है, और अनियमित अपथ्य आहार लेनेवाले मनष्य के शरीर में जो फीकापन आता है, शरीर फल जाता है वा शरीर पर जो सूजन आ जाती है, उस परिवर्तन का नाम शरीरिक विकार है। ये विकाश और विकार परिवर्तन की दृष्टि से तो दोनों समान ही हैं, परन्तु उनमें से एक हमें विशेष इष्ट और दूसरा सर्वथा अनिष्ट है। इसी प्रकार जिस साहित्य की रचना शैली मे परिस्थिति के अनुसार फेरफार किया जाता हो या अपूर्ण रचनाशैली को समय और संयोगानसार न्यूनाधिक करके पष्ट बनाई जाती हो वह परिवर्तित साहित्य विकाश की कोटि में गिना जाता है, परन्तु जिस रचनाशैली को स्वच्छन्द, दाग्रह, गद्धता या लोकैषणा वगैरह अपथ्य के संसर्ग से फीकी की गई हो, शोफित की गई हो और जो ढोल के समान फलादी गई हो उस परिवर्तन को यथार्थ रूप से साहित्य विकार की संज्ञा घटती है। इन दो परविर्तनों मे प्रथम का परिवर्तन हमें हितकर और कल्याण कर है, परन्तु दूसरा अहितकार और अमंगलप्रद है। यदि कोई भी देश, समाज या धर्म प्रगति को पाप्त हुआ हो तो उसमे प्रथम परिवर्तन ही कारण रूप है और कोई देश, समाज या धर्म यदि अधः पात-अवनति को प्राप्त हुआ हो तो उसमे दूसरा परिवर्तन ही मुख्य कारण है। वर्तमान भारत, उसकी प्रजा और उसका धर्म जिस अपदशा का अनुभव कर रहा है उसका समस्त श्रेय दूसरे परिवर्तन पर ही अवलम्बित है। कोई भी धर्म कलह को पोशित नही करता, प्रजाके विकाश की रूकावट नहीं करता और प्रजाके विकाश कारक व्यवहारिक नियमो में हस्तक्षेप नही करता, तथापि वर्तमान युगके धर्मों धर्मको सामने रख कर मानो स्वय ही धर्म के रक्षक न हों ऐसा समझ कर धर्म के नाम से कलह करते हैं, प्रजा बल को क्षीण करते हैं, युवको के विकाश को रोकते हैं और जागृत होती प्रजा को धर्म के हाऊसे डराकर सला देने का प्रयत्र कर रहे हैं। इन सब बातो का मूल कारण दूसरा परिवर्तन ही तो है। उपरोक्त परिस्थिति से यह स्पष्ट मालम हो सकता है कि गणघरों के रचे हये सत्रो या अगो पर कैसे कैसे युग बीते हैं। जिस साहित्य पर कुदरत की ओर से ही ऐसा भीषण प्रकोप हो वह साहित्य परपरागत एक सरीखा ही चला आवे यह बात किसी भी विचारक की बखि मे यथार्थ नहीं जच सकती। किन्तु जो अग साहित्य इस समय विद्यमान है वह दुष्कालों के भीषण प्रहारों के कारण काल रूडी, स्पर्धा और स्वाच्छद्य के असहा जखमो से जखभित स्थिति में हमारे सामने अस्तित्व धारण करता है।

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