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दर्भिक्ष के बाद लगभग तीनसौ चारसौ वर्ष पीछे-वीर निर्वाण से पांचवीं छठी शताब्दी में आर्य श्री स्कदिल और वज्रस्वामी की निकटता के समय वैसा ही एक भीषण दुर्भिक्ष इस देश को पार करना पड़ा था। इस विषय का वर्णन करते हये नदी चूर्णी लि० प्र० सं०४ से उल्लेख किया गया है कि बारह वर्षीय भयकर दुर्भिक्ष पडने पर अन्नके लिये साधु जुदे जुदे स्थान में विचरतें थे, इसस श्रतका ग्रहण, गणन और चिन्तन न कर सके, इस कारण वह श्रत नष्ट भ्रष्ट हो गय।। जब पुन सुभिक्ष हुआ तब मथुरा में श्री स्कंदिलाचार्य प्रमुख संघ ने साधु समुदाय को एकत्रित करके जो जिसे स्मरण रहा था वह सब कालिक १ श्रुत सगठित किया।" इस पूर्वोक्त दुर्भिक्ष ने पहले दुर्भिक्ष से बचे हुये श्रुतको विशेष हानि पहुचाई। यह उद्धार सूरसेन देश २ के पाट नगर मथुरा में होने के कारण श्रुतमें सौरसेनी भाषा का विशेष सम्मिश्रण हुआ और उसमें जुदे जुदे अनेक पाठान्तर ३ भी वृद्धि को प्राप्त हुये। __ यह बात हमें दुःख के साथ लिखनी पड़ती है कि वह विषम खेदका प्रसंग बीतने के बात भी प्रकृति देवी की क्रूरता से देश पर फिर से वीर निर्वाण दसवीं शताब्दी में दर्भिक्ष के बादलों की धनघटा छा गई। इस समय बहत से विशेषज्ञ स्थविरो का अवसान हो गया और जो कुछ जीर्ण शीर्ण श्रुत बचा था वह भी विशेष रूप में छिन्न भिन्न हो गया। इससे उस समय के अंग साहित्य की स्थिति के साथ श्री वीर समय के अग साहित्य की तुलना करने वाले को दो सौतेले भाईयों के बीच जितना अन्तर होता है उतना भेद मालूम होना सर्वथा संघठित कल्प है।
१ देखो-कालिक श्रुत के लिये नंदीसूत्र। २. देखो-प्रजापना, आर्य देश विचार।
३ विशेष पाठ भेदों से उलझन मे पडे हये श्रीअभयदेव सरिजी लिखते हैं कि- "अना वय शास्त्रमिद गभीर-प्रायोऽस्य कूटानि च पुस्तकानि।"
"प्रश्न व्याकरण वृत्ति प्रारम्भे किमपि स्फटीकृतमिह स्फुटेऽष्यर्थत सकष्टमतिदेशतो विविधवाचनातोऽपि यत्"
(जाता धर्मकथा वृत्ति प्रान्ते) इस विषम समयकी परिस्थिति दिखलाते हुये कहा गया है कि- "श्रीदेवर्धिगणी क्षमाश्रमणेन श्रीवीराद् अशीत्यधिकनवशत (९८०) वर्षे जातेन द्वादशवर्षीयदुर्भिक्ष वशाद् बहुतर साधुव्यापतौ बहुश्रुत विच्छित्तौ च जाताया x x x भविष्यद् भव्यलोकोपकाराम श्रुतभक्तये च श्रीसधगहाद् मृतावशिष्टतदाकालीनसर्वसाधून वलभ्यामा कार्य तन् मुखाद् विच्छिन्नावशिष्टान् न्यूनाधिकान् त्रुटिताऽत्रुटितान् आगमालापकान् अनुक्रमेण स्वमत्या