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29 अतः जैसा भगवान ने कथन किया है उसे ही समझ कर ज्यों बिन त्यों सर्वत्र समता समझते रहना।" (४२९)
जिस मुनि के पास पात्र के साथ दो वस्त्र हों उसका यह भाव न होगा कि मैं तीसरा वस्त्र मांगेगा। यदि दो वस्त्र न हो तो यथायोग्य वस्त्र मांग लेना
और जैसा मिले वैसा ही पहनना। इस प्रकार साधुका आचार है" (४२४) ___ "जो साधु यह माने कि शीतर्त बीत गई, ग्रीष्म आगई है, वह उन-परिजीर्ण वस्त्रों को परठ दे-त्याग दे या समय पर-कारण पड़ने पर पहने या कम कर दे, याने एक वस्त्र रक्खे और अन्तमें उसे भी छोड़ कर वस्त्र रहित दिगम्बर होकर निचिन्त बने। ऐसा करते हुए तप प्राप्त होता है, अत जैसा भगवान ने कथन किया है उसे वैसा समझ कर ज्यों बने त्यों सर्वत्र समता समझना" (४२५) __ जो मनि सहनशीलता के अभाव से या लज्जाके कारण एक या दो वस्त्र रखते हैं, वैसे वस्त्रधारी साधुओ के विषय में आचाराग सूत्र मे निम्न लिखे मुजब बतलाया है। ___ "भिक्ष या भिक्षणी एषणीय वस्त्रो की याचना करे, जैसा मिले वैसा पहने, परन्तु उसमे सुधार न करे, तथा उसे धोना या रगना नहीं। यदि धोया हुआ या रगा हुआ हो तो पहनना नही एव ग्रामान्तर जाते समय वह अल्पवस्त्री मुनि उसे छिपाये नही, वस्त्रधारी मुनिका यही आचार हैं" (८३२)
स्थानाग सत्र में भी वस्त्र रखने के यही कारण बताये हैं. जैसे कि "ये तीन कारण हो तो साधुने" (वत्थ) एक वस्त्र धारण करना, लज्जा, घृणा और परिषह, अर्थात् जो साधु लज्जा, घृणा को नहीं जीत सका है और सकटो को सहन नही कर सकता वह एक वस्त्र धारण करे।
जो कारण वस्त्र रखने के ऊपर बतलाये हैं वैसे ही पात्र रखने के कारण भी सूत्र ग्रन्थों में उल्लिखित हैं। इस विषय मे भी आचारांग सूत्र के पूर्वोक्त पात्रैषणा, नामक प्रकरण में निम्नलिखित उल्लेख मिलता है।
"मनि या आर्या को जब कभी पात्र की आवश्यकता पडे उस समय तुबीपात्र या मट्टीका पात्र अथवा इसी तरह का कोई भी पात्र ग्रहण करना। जो मुनि युवा या मजबूत बांधे वाला हो उसे मात्र एक ही पात्र रखना चाहिये, दूसरा नहीं।" (८४१)
उपरोक्त विषय को पुष्ट करने वाला स्थानागसूत्र में भी निम्न उल्लेख पाया जाता है