Book Title: Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Bechardas Doshi, Tilakvijay
Publisher: Digambar Jain Yuvaksangh

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Page 41
________________ ८"कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा ततो ततो पायाइं धारित्तते वा, परिहरित्तते वा, तंजहालाउयपादे वा, दारुपादे वा, मट्टियापादे वा"।(१७०) इस प्रकार श्वेताम्बरों के इन प्रामाणिक सूत्र ग्रन्थों में कहीं भी यह मालूम नहीं देता कि वस्त्र पात्र के ही लिये आग्रह किया गया हो, या उसके सिवा संयम हो ही नहीं समता, मुक्ति मिल ही नहीं सकती वा वस्त्र पात्र के बिना कल्याण ही नही होता, इस बात का आग्रह करने वाला कोई भी लेख नहीं मिलता। सूत्रों में साफ यह बतलाया गया है कि जो मनि वस्त्र पाव बिना भी निर्दोष संयम पाल सकता हो उसके लिये वस्त्र पात्र की कोई आवश्यकता नहीं है और जो साधु वस्त्र पात्र के बिना सयम पालने की शक्ति को प्राप्त न कर सका हो वह यदि वस्त्र पात्र-एक या दो वस्त्र और एकाध पात्र रक्खे तो भी कोई हरकत नही है। दोनो का ध्येय संयम है, त्याग और आत्मश्रेय है। वस्त्र पात्र रखने वाले को वस्त्र पात्र का गुलाम नहीं बनना और नग्न रहने वाले को नग्नता का गुलाम नही बनना चाहिये। तात्पर्य यह है कि किसी भी स्थिति का दास न बन कर और एकान्त दुराग्रह न करके जितनी आवश्यकताये कम हो सके वैसा प्रयत्न करना है। इसी प्रयत्क्षवाले मार्ग का अनुसरण श्रीवर्धमान ने किया था और यही आर्य ग्रन्थों मे उल्लिखित है, इसी मार्ग में त्याग और आत्मस्वातश्य है एवं घर गृहस्थी छोडने का सार भी इसी में समाया है। जहा तक मैं समझता हू ऊपर कथन किये मुजब इस सम्बन्धो मे दिगम्बर ग्रन्थो के प्रमाण देने का विशेष अवकाश नही रहता, अर्थात् पूर्वोक्त प्रमाणिक और प्राचीन सत्र ग्रन्थो के उल्लेख से इस विषय पर काफी प्रकाश पडचुका है, तथापि एकान्त नग्नतावाद को माननेवाले दिगम्बर सप्रदायके ग्रन्थों पर भी दृष्टिपात कर लीजिये क्या इस बात का बुद्धि स्वीकार कर सकती है कि उन ग्रन्थो मे यह लिखा हो-मनि बीमार पडा हो, चाहे मरता ही क्यो न हो तथापि उसे कपडे के चथडे तक को हाथ न लगाना चाहिये? वह रूग्णावस्था में बिस्तर पर ही भले टट्टी पिसाब करता हो? तथापि वह एक मट्टीके ठीकरे तकको स्पर्श न करे? उग्र संयम के पोषक दिगम्बर ग्रन्थों ने भी जिस तरह मनियों को खाने पीने की छूट दी है वैसे ही मात्र संयम के लिये वस्त्र पात्र की भी छुट देनी उचित है। यदि उन ग्रन्थो मे सयम के निमित्त इस प्रकार का विधान सर्वथा न हो तो मैं समझता हू कि वह उनके रचयिताकी त्रुटि है। अभ्यासी एव तदिच्छुक मनुष्यो के लिये ऐसी कोई स्थिति क्वचित ही होगी, जिसमें एकाध छुट रक्खे बिना उनका निर्वाह हो सके। जहां तक बने वहा तक समताको कायम रखते हुए गमन करना यह तो सही है परन्तु जब

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