Book Title: Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Bechardas Doshi, Tilakvijay
Publisher: Digambar Jain Yuvaksangh

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Page 44
________________ 35 दुस्सह किया गया है। ऋजु प्राज्ञ साधु पच रंगी वस्त्र, रेशमी वा बहुमूल्यवान वस्त्र भी पहन सकते है और वक्र जड साधुओं को शक्यतानुसार अचेलक (वस्त्र रहित, एक वस्त्री या दो वस्त्री, वह वस्त्र भी पुराना, मैला, फटा टूटा और गृहस्थी द्वारा वर्ता हुआ, जैसा मिले वैसा ही सुधारे बिना कारण पड़ने पर ही उपयोग में लेना चाहिये) ही रहना चाहिये। किसी एक साधु समुदायको उद्देश कर बनाया हुआ खान-पान ऋजु प्राज्ञ साधु गहण कर सकते हैं और वही खान पान व्यक्ति की दृष्टि से भी वक्र जड़ साधुओं के लिये दूषित गिना जाय, ऋजु प्राज्ञ मुनि राज पिंड भी ग्रहण कर सकते है, परन्तु वक्र जडों से वह सर्वथा नहीं लिया जा सकता। ऋजु प्राज्ञ प्रतिक्रमण की क्रिया अपनी इच्छानुसार कर सकते है, परन्तु वक्र करनी चाहिये। ऋजु प्राज्ञ शय्यातर गृहस्थ के घर का आहार पानी वगैरह ग्रहण कर सकते हैं परन्तु वक्रजड़ मुनि नहीं ले सकते । विहार, जेष्ठ कनिष्ठकी व्यवस्था और बन्दनादि व्यवहार के लिये ऋजुप्राज्ञ निरकुश रह और उन्हीं कार्यों के लिये व्रक्रजडों को गुरू की परतत्रतामे रहना पडे, यह बात विचार करने लायक है। इनमे से निरकुश आचार भगवान पार्श्वनाथ के ऋजु प्राज्ञ साधुओ का है और सांकुश आचार भगवान वर्धमान का है और सांकुश आचार भगवान वर्धमान के मुनियो का है। यहा पर यह बात मैं पाठकों पर ही छोड़ता हूं वे स्वयं विचार करें कि उपरोक्त आचारों में किसमें विशेष कठिनता देख पड़ती है और कौन - सा आचार विशेष मर्यादित मालूम होता है? यदि त्याग का अर्थ अपनी आवश्यकताये कम करने का हो यदि त्याग का अर्थ निरंकुशताको रोकना होता हो, सहन करना हो और यदि त्याग का अर्थ मर्यादित जीवन बिताना हो तो हर एक मनुष्य निःसकोच यह स्वीकार किये बिना न रहेगा कि श्रीवर्धमान के ही आचारों मे त्याग, साधुता, मर्यादितपन, सहनशीलता, साकुशता और पूर्ण वैराग्य भरा है। तथा ऋजुप्राज्ञ पुरूषो के आचारो में अनुकूलता आराम यथेच्छवर्तिता और अमर्यादा झलक रही है। कदाचित् पार्श्वनाथ भगवान की विद्यमानता मे उनके शिष्यो में इस प्रकार का सुखशील वर्तन न भी हो, परन्तु उनके निर्वाण बाद - श्रीपार्श्वनाथ और श्रीवर्धमान के शिष्यो के २५० वर्ष के दरम्यान किसी भी समय पार्श्वनाथ के सन्तानीयो पर उस समय के आचारहीन ब्राह्मण गुरूओ का असर पड़ा हो और इसी कारण उन्होने अपने आचारों में से कठिनता निकाल कर विशेष नरम और सुकर आचार बना दिये हों यह विशेष सभावित है। मान लिया जाय कि हमारा कोई पड़ौसी अच्छी तरह नहाता धोता हो, इच्छानुसार वस्त्र पहनता हो और ऐसी रीति भांति रखते हुये भी वह साधु या धर्मरू की हैसियत से प्रतिष्ठा या पज्यता प्राप्त कर सकता हो तो मैं नहीं

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