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व्यवहारिक कार्य में दस्तनदाज़ी करके सरकारी पुलिस के समान उनमें पारस्परिक फूट डालकर उन्हें विशेष कदर्षित करने के णित कार्य को छोड़
____ अब हम पाठकों का इस ओर ध्यान खीचते हैं कि जैन धर्म में ऐसे कौन से परिवर्तन हुये जो इष्ट परिवर्तन और अनिष्ट परिवर्तनकी कोटिमें आ सकते हैं और वे मूल जैन धर्म के साथ कितना सम्बन्ध रखते हैं एवं उस तरह के उसमें संमिश्रण किस किस समय से प्रचलित हुये हैं। मानव जाति इतनी अपूर्ण और परतंत्र है कि उसे प्रत्येक प्रवृत्ति में किसी एक नायक की आवश्यकता पड़ती है। नायक बिना व्यवस्थित प्रवृत्ति नहीं हो सकती। घर सम्बन्धी, बाहर सम्बन्धी, लौकिक या परलौकिक समस्त प्रवृत्तियों में प्राप्त होनेवाली सफलता का कम से कम आधा आधार नायक की आवाज़ पर निर्भर रहता है। मैं स्वयं भी ऐसा हंकि समझते हये भी नायक की (घर में बड़े माताजी वगैरह नायक की) प्रेरणा सिवाय पूरा आरोग्य भी नहीं रख सकता। समझता हूं कि अंगुली के मूल भाग में खुजली हो तो खुजाना नहीं, ऐसा करने से एक वेदना को शान्त करते हुये भविष्य मे दूसरी वेदना का होना सम्भव है, तथापि खुजलीके वश होकर हंसते हंसते खुजाने लगता हूं। ऐसी ही स्थिति मैंने सैकड़ों की देखी है, संसार में मेरी वृत्ति वाले मनुष्यों की बहुलता होने से आत्मावलम्बी बहुत कम है, मेरी यह कल्पना सत्य ही प्रतीत होगी। इस तरह की साधारण और क्षुद्र मे क्षुद्र हानिकार प्रवृत्ति से अटकने के लिए भी हमे नायक की प्रेरणा की आवश्यकता पड़ती है, तब फिर जिस अज्ञात पन्थपर हमारे जीवन का विकाश अवलम्बित है उस मार्ग के सिवा दूसरी तरफ ध्यान न जाय इसके लिये हमें किसी एक मार्ग दर्शक की जरूरत हो यह स्वाभावकि बात है। इसी नियम के अनुसार घर में, कुटुम्ब में, जाति मे, बाजार मे, गाव मे, परगने में, ज़िले में, प्रान्त में, और देश में एवं हर एक जगह की व्यापार क्रियाओं में एक एक नायक की योजना की गई है। कोई एक जवाबदार स्थान कल्पित किये सिवा हमें कल नहीं पड़ती। नम्बरदार, थानेदार, न्यायाधीश, मंत्री और राजा आदि की योजना भी हमारी अपूर्णता पर ही निर्भर है, इतना ही नही किन्त ईश्वर वाद तक की जड भी मनुष्य की अपूर्णता ही है। युगलिकों के लम्बे चौड़े वर्णनों से भी यही सार निकलता है कि एक समय मनुष्य संसार में कोई सजा ना था, न ही कोई आगेवान या गुरू था, तथापि युगलिक लोग अपनी अपनी मर्यादा मे रह कर सिर्फ खेती पर ही अपना निर्वाह करते थे। परस्पर व्यामोह या कलहका नामोनिशान तक भी न था और सबके सब स्वयमेव पूर्ण निरोगी रह कर ऐसा स्वर्गप्रद व्यवहार करते थे कि जो इस समय मात्र हमारे ग्रन्थों में ही शोभा प्राप्त कर रहा है। यद्यपि