Book Title: Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Bechardas Doshi, Tilakvijay
Publisher: Digambar Jain Yuvaksangh

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ 20 थे। घी, दूध वगैरह पौष्टिक पदार्थों को वे क्वचित् ही ग्रहण करते थे। गृहस्थो के भोजन कर लेने पर दोपहर के बाद निर्दोष आहार प्राप्त करने का समय अनुकूल समझा जाता था । साधारण नियमानुसार तो विशेषतः निराहारी ही रहना उत्तम गिना जाता था और आहार ग्रहण आपवादिक माना जाता था। सभी मुमुक्षु पात्र न रखते थे। कितने एक मुमुक्षु मात्र कर पात्र थे। वैसे करने में असमर्थ मुमुक्षु मात्र एक या दोही पात्र रखते, सो भी त्याग की दृष्टि से मट्टीका पात्र विशेष ठीक माना जाता था। नग्न रहने मे ही विशेष त्याग समाया था। अधिक मुनि समुदाय नग्न ही रहता था। परन्तु जो लज्जाको न जीत सके थे वे मात्र एक ही वस्त्र धारण करते थे । स्मरण रखना चाहिये कि उस समय के आदर्श श्रावक भी मात्र दोही वस्त्र एक धोती और दूसरा खेश परिधान करते थे। ग्राम में निवास करना और गृहस्थियों का विशेष सहवास सयम के प्रतिकूल गिना जाता था । वनबाडों को पालन करने में विशेष ध्यान दिया जाता था । ( वर्तमान मुनियो मे कोई विरला ही मुनि मिलेगा जो नववाडो को पालन करने में ध्यान रखता हो) और विशेष बोलने की अपेक्षा मुनि भावकी ही प्रधानता श्रेयरूप मानी जाती थी मुमुक्षु महामुनि अपनी स्वीकृत प्रतिज्ञाओ को जरा भी आच न आने देते थे और उन्हे पूर्ण करने के लिये किसी प्रकार के अपवादका आश्रय भी न लेते थे। श्रीवर्धमान इस तरह के समर्थ पुरुषो मे से एक वीरनर थे। उन्होंने पूर्वोक्त पाचो ही प्रतिज्ञाओ को जीवन पर्यन्त विशुद्ध रूप से पालन किया था। वे इसी लिये मुण्डित हुये थे, नग्न रहे थे, करपात्र बने थे ओर इसी कारण उन्होंने पाशव वृत्ति की ओर से आने वाले सकटो को सहर्ष सहन किया था। इसी प्रकार जो मुमुक्षु वर्धमान की कोटिका सामर्थ्य धारण करते थे, वे भी वर्धमान की चर्याका अनुसरण करने मे पीछे न हटते थे। परन्तु जो मुनि वर्धमान की पाठशाला के अभ्यासी थे, जिनमे प्राण जाने पर भी प्रतिज्ञा न जाने पावे ऐसी वृत्ति प्राप्त होने मे बिलम्ब था, जो पर्वतके समान अकम्पता और भूमिके समान सर्व सहनता तक न पहुचे थे, परन्तु उसके तीव्र अभिलाषी थे वे अपने ध्येय तक ही पहुचने के लिये कितनी एक छूट ग्रहण करते थे। वह छूट भी और किसी बात मे नहीं किन्तु सिर्फ एक दो पात्र रखने और एकाध वस्त्र, सो भी गृहस्थ का बर्ता हुआ रखने की छूट रखते थे। यह १ देखो आगमोदय समितिवाला सूत्रकृताग सूत्र, उपसर्गा ध्ययन गाथा ८ - १० पू० ०-१० २ नन्नत्थ एगेण खोमजुयलेण, अवसेसं वत्थविहि पच्चखामि, अर्थात् आनन्द श्रावक क्षोमयुगल याने सूत्र के दो वस्त्र के सिवा अधिक वस्त्र ग्रहण न करने का नियम धारण करता है । उपासक दशागसूत्र पृ० ३ ( समितिलावा)

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123