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युगलिकों को जंगली समझ कर हमें हंसी आयगी, परन्तु वर्तमान सुशिक्षित व सुधरे हुए समाज की परतंत्रता के लिये परिपूर्ण क्या किसी को जरा भी शरम आती हैं ? अस्तु, अन्तिम नतीजा यह निकलता है कि मनुष्य की अपूर्ण स्थिति तक, परिपूर्ण स्वतंत्रताको झेलने की शक्ति प्राप्त हो तब तक हमारे सर्व व्यापारों में नायक के तत्व की अपेक्षा आवश्यक है। जिस तरह हमारे अन्य व्यवहार, हमारे विकाश में नियमित रूप हत्यों धार्मिक व्यवहार भी हमारे लिये परम पथ्य रूप है। उस व्यवहारको मर्यादित रखने के लिये, उसे परिस्थिति के अनुसार परिवर्तित करने के लिये और उसमें अनिष्टता का संमिश्रण न होने पावे इस बात की हिफाजत के लिये हमे एक गुरू संस्थाकी आवश्यकता अवश्य है। प्रवर्तमान जैन संघकी रचना की स्थापना चाहे जब हुई हो, वर्तमान रत्नत्रय की (देव गुरू धर्म की ) योजना चाहे जिसने की हो परन्तु उसमें का उपदेशक विभाग उपरोक्त मुद्दे पर ही नियोजित किया गया है यह मेरी प्रमाणिक मान्यता है। श्रीवर्धमान परम निवृति के उपासक थे। हम भले ही उन पर 'सभी जीव करू शासन रसी, का आरोप करें, परन्तु वे इस आरोप के पात्र न थे। उनके मन हमारा कल्पित हित और अहित दोनो समान थे। वे परम सत्य तक पहुचे हुवे थे, इस कारण उनमें निरन्तर उपेक्षा वृत्ति जागृत रहती थी अर्थात् उनमें सदैव परम माध्यस्थ भाव रहता था। जो स्थिति परम माध्यस्थ की पराकाष्ठा तक पहुंचे हुये मनुष्य की होती है वैसी स्थिति श्रीवर्धमान की थी। उनकी समस्त क्रियाये औदयिक होती थीं। जो योगी झोंपडी का घास खाने वाली गाय को हटाने मे अपने माध्यस्थका भंग समझता हो उस पर लोक कल्याण कर भावना का आरोप देना यह मात्र उसकी यशोवर्धना है। श्रीवर्धमान की यह परिस्थिति आचरांगसूत्र के नव मे अध्ययन और सूत्रकृताग सूत्र मे वीरस्तुति नामक प्रकरण के अनाडम्बरी उल्लेख से साफ साफ मालूम हो जाती है। ऐसी वृत्ति वाले श्रीवर्धमान के हाथ से ही हमारे धर्म की सगठना या संघ रचना का होना मेरी दृष्टि में सर्वथा अनुचित मालूम होता है । उस समय श्रीवर्धमान ने जो कुछ लोक जागृति की थी उसका समस्त श्रेय उनके मुनिव्रतको ही था । वर्तमान समय में महर्षि गाधी के समान कहने की अपेक्षा कर दिखलाने से ही उन्होंने दभी ब्रह्मणों के बलको नरम करने की लौकिक निमित्तता प्राप्त की थी। उनके मध्यस्थ जीवन की उद्देश लोक जागृति न था, परन्तु यह बात सिर्फ अनुदृष्टि मेघवर्षण से फलित होनेवाली खेती के समान उनके चारित्र्य प्रभाव से बन गई थी। उनका जीवन और आचरण मेरे जैसे कक्का घोखने वाले मनुष्य के
१ पारम्पर्येण केवल ज्ञानस्य तावत् फलमौदासीन्यम् ।।४।। रत्नाकृसवतारिका, छठा परिच्छेद । औदासीन्य शब्द का विशेष विवेचन इस सूत्र की टीका में देखे ।