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कारण यह था कि वैदिक सम्प्रदाय के भूदेव गुरूओं ने मात्र अपने विलास की तरफ ही दृष्टि रक्खी थी और धर्म को उसका खास साधन बनाया था। इसी से वे परिस्थिति, लोकहित या आत्मविकाश से विपरीत प्रवाह में बहने लगे थे। वैदिक सत्य में जो त्रुटियां पूर्वापर से चली आई थीं और जो विशिष्ट साधन लोक हित के लिये उसमें मिलाये गये थे, उनका वे पृथक्करण न कर सके, इससे वैदिक सत्य इतना शोफित (सूज गया) होगया कि जिसके परिणाम में उपनिषदों के प्रवाह से उसे भूशायी होना पड़ा।
यही दशा पोप धर्म की है। यह धर्म पोप-लीला के नामसे प्रसिद्ध है। क्या इसके लिये यह कम शरम की बात है? कहने का सारांश यह है कि परिस्थिति एवं लोकहित को भूल जाने से धर्म में अनिष्ट तत्व पैदा हो जाता है और हुआ है | जो लोकहित के साधन हैं वे भी परिस्थिति के विरोधि प्रवाह में बहने के कारण कितने एक प्राणियों की आत्मा को जकड़ने के लिये रस्सी का काम करते हैं। आज प्रत्यक्ष देख रहे हैं, कि रक्षा करने वाली बाड़ ही खेतको खा रही है, धारण करने वाला धर्म ही उसके आश्रितों को नीचे पटक रहा है और माता पिता के समान धर्म गुरूओं को अपनी सन्तान की वेदना पूर्ण कराहना की ओर दृष्टिपात करने तक का भी अवकाश नहीं मिलता। वे अनेक यातनायें सहते हुये जीते जागते जैनियों की सोचनीय दशा पर दुर्लक्ष्य "कर अपनी वशवृद्धि की चिन्ता में लीन हैं। निर्जीव होने तक जैनों की उपेक्षा कर पाषाण खण्डों- मूर्तियों के लिये सरकारी अदालतों में मुकदमेबाजी कराते हैं, निर्धन व निःसत्व होते हुये जैनों की तरफ ध्यान न दे कर सुन्दर में सुन्दर 'चंदोवा पूठिया के नीचे समवसरण में बैठकर उसी का समर्थन किया करते हैं, 'निरूद्यमी होते हुये जैनों को बेपरवाह करके वर्तमान समय के विपरीत बड़ीबड़ी यात्राओं के उपलक्ष में लाखों रुपयों का तगार कराते हैं। जैसे स्त्रियों को वाद्य प्रिय होता है वैसे ही उन्हें भी सामैय्या - जलूस अतिप्रिय लगता है। जिस तरह औरतें गीत से मस्त बन जाती हैं वैसे वे भी गौहली - व्याख्यान में गाई जाती हुई अपनी स्तुति, सुनकर मस्त बने हैं। ज्यों स्त्रियों को जमाई प्रिय होता है त्यों उन्हें भी शिष्य अति प्यारे हैं। यहां पर इस विषय में विशेष कर कर अपनी आत्माको कलुषित करने की मेरी वृत्ति नहीं है, तथापि मैं इतना अवश्य करूंगा कि वर्तमान समय के धर्म गुरू बदले की नीतिकी भी हिफाजत नही कर सकते। क्या ऐसा करते हुये अन्यायार्थ भोजी नहीं कहे जा सकते? मैं उनके चरणों में पड़कर उन्हें यह प्रार्थना करता हूं कि वे अब या तो बदले की नीतिको ध्यान में लेकर अपनी स्थिति को सुधारें या पूर्व मुनियों के समान श्रावकों का संसर्ग छोड़ कर बनवासी बन जायें । परन्तु श्रावकों के हितके बहाने उनके साथ सम्बन्ध रखने वाले खाते खोल कर और उनके प्रत्येक