Book Title: Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Bechardas Doshi, Tilakvijay
Publisher: Digambar Jain Yuvaksangh

View full book text
Previous | Next

Page 23
________________ पड़ता है-उसका आश्रय लिये बिना हमारा आत्मविकाश हो नहीं सकता। व्यवहार में भी अनुभव किया जाता है कि किसी कलामें पारंगत होने के लिये प्रारंभ मे कल्पित या बनावटी साधनो का सहवास रखना पड़ता है। हमारे बच्चे गड्डु गुड़ियों आदि के खेल से गृहव्यवहार और कौटुम्बिक सम्बन्ध सीखते हैं। अद्वितीय भौगोलिक बनने के लिये पृथ्वी के बमावटी गोले का आश्रय लेना पडता है। बनावटी नगरों की ओर सावधानता पूर्वक देखना पडता है, ऐसे अनेक उदाहरण स्पष्ट प्रतीत होते हैं। परन्तु जब हम परिपक्व वय को प्राप्त होते हैं तब इस तरह के अर्थक्रिया शुन्य गड्डा गडियो आदि खिलौनों को हाथ तक नहीं लगाते। चित्तवृत्ति का विकाश हये बाद कल्पित बातो की अपेक्षा व्यवहारकि बातें विशेष लाभ करती हैं एव भौगोलिक पंडित कुछ निरन्तर ही अपनी जेब में भूगोल के नकशोका पलिदा नही डालें रखता। यदि हम बाल्यावस्था से लेकर परिपक्व वय होने तक उपरोक्त प्रकार के परिवर्तन न करें और बच्चो की गुड्डा गुडिया वाली खेलन क्रिया को ही चुस्त श्रद्धा पूर्वक पकडे रहें तो क्या निर्वाह हो सकता है? इतने विशाल ससार में क्या एक भी मनुष्य ऐसा देख पडता है कि जो अपनी बालकता को ही बडेपन में भी पूर्णतया पकडे रखता हो? मेरी तो मान्यता है कि हमारी प्रत्येक सामग्री में परिस्थिति के अनुसार यदि हम परिवर्तन करते रहे तभी हमारा विकाश वृद्धिगत हो सकता है। सामग्रियो में परिवर्तन करने से हमारे पूर्वजो का अपमान नही होता, बल्कि प्रत्युत उन पूर्वजों के लक्ष्य तक पहुचने के लिये जिस तरह हम गुलाब के पौधे की कमल करते हैं वैसे ही हम अपनी पारम्परिक विकारित सामग्रियो की कलम करनी आवश्यक है। ससार में कितने एक प्रसग ऐसे भी उपस्थित होते हैं कि जिनमे कुदरत ही हमें परिवर्तित कर देती है, परन्तु जब हम कुदरतका सामना करके अश्रद्धालु बन बैठते हैं उस वक्त अपरिवर्तित पान के समान हममे दर्गन्ध की वृद्धि होती रहती है। न फिराये हुये घोडेके समान हमारी गति रूक जाती है और अन्तमे चूल्हे पर न फिराई हुई रोटी के समान हमारे नाश का भी प्रारम्भ हो जाता है। इस रीति से (विकृत परिणम मे रूढ होकर) हम पिता वै जायते पत्र-बापके समान बेटावाली कहाबत को झूठ ठहरा कर पुरातन श्री वर्धमान जैसे बजर्ग को भी आचार और विचार मे अपने समान मानते हैं यह क्या कम अविवेक है? सर्व साधारण लोकहित की ओर दुर्लक्ष्य करके सिर्फ अहपदी, स्वार्थी और लोलप बने हुये ब्राह्मणो ने वैदिक प्राचीन सत्यों मे अनेक सम्मिश्रण कर परिस्थिति के अनुसार परिवर्तनीय वैदिक पद्धति में परिवर्तन न करके वर्तमान वैदिक धर्म की श्री वर्धमान और बद्ध के समय में ऐसा भीषण बनाया था कि

Loading...

Page Navigation
1 ... 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123