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पाठक समझ सके होगे कि देश कालानुसार परिवर्तन जितना उपयोगी होता है, विपरीत परिवर्तन उतना ही भयंकर होता है। मेरी समझ के अनुसार जैन साहित्य मे इष्ट और अनिष्ट दोनों प्रकार के परिवर्तन हुये हैं । उनमे से इष्ट परिवर्तनों को आदर की दृष्टि से देखना चाहिये और अनिष्ट परिवर्तनो को दूर करना उचित है। मेरा यहां पर चर्चा का मुख्य विषय यह है कि वह अनिष्ट परिवर्तन क्यो हुये ? किसने किये? और उनका ब्यौरा क्या है?
सर्वथा सत्य- प्रगट सत्य, शुद्ध सत्य एक ऐसा भारी रसायन है कि जिसे मनुष्य मात्र झेल नही सकता। जिस तरह विशेष प्रकाश विशाल नेत्रवाले की भी आंखो को चुधिया देकर उसकी दर्शन शक्ति का निरोध करता है वैसेही केवल शुद्ध सत्य का उपदेश लौकिकसाधारण मनुष्य को उलझन मे डाल देता है। शुद्ध सत्य की दृष्टि मे पुन्य पाप के तड टिक नही सकते। शुद्ध सत्य की दृष्टि में सारासार नही टिक सकता और शुद्ध सत्यके सामने जाति अजातिकी भावनाको अवकाश नही मिलता। यदि उसके सामने कोई टिक सकता है तो मात्र एक आत्म स्वास्थ्य-सिद्ध वेद्य स्वास्थ्य ही समर्थ है। यद्यपि निखालस सत्य पिशाचके समान डरावना लगता है तथापि परम शान्ति उसी
समाई हुई है। विकाश की पराकाष्टा पर पहुचने वाले मनुष्य मात्रको यदा कदापि उसकी ही गोद टटोलनी पडेगी यह बात अनिर्वचनीय और अगेय होने के कारण किसी से निखालस रीत्या नही कही गई परन्तु ढूँढा इसे सबने है। वर्तमान समय में इसे कोई कथन नही कर सकता और न ही भविष्य मे भी यह कथन किया जायेगा । मनुष्य जन्म से ही कृत्रिम सत्यों का ससर्गी है उसके समझ निखालस सत्यका सीधा उपदेश किस तरह किया जाय? इसी एक कारणवशात् मनुष्य की अवनति की आशकासे अनन्त कालमे वह ठोस सत्य छिप हुआ रहा है। और आगे भी वह हमेशा के लिये छिपा रहेगा। परन्तु वही सबका ध्येय और अन्तिम लक्ष्य होने से हर एक मनुष्य ज्ञाताज्ञात तया उसी की उपासना कर रहा है। जिस तरह सासारिक यवहार में निपुणता प्राप्त करने के लिये प्रारम्भ मे कृत्रिम साधनो एव कृत्रिम व्यवहारो का उपयोग किया जाता है उसी तरह उस परम सत्य को प्राप्त करने के लिये भी कृत्रिम सत्य और कल्पित व्यवहारो की योजना की गई है। इन कल्पित सत्य या सभ्य सत्यों और कल्पित व्यवहारो को मैं इष्ट परिवर्तन की कोटि में रखता हू । इन कृत्रिम सत्यो और व्यवहारो के समय मे अनुसार, समाज के अनुसार और परिस्थिति के अनुसार अनेक परिवर्तन हो चुके है, होते रहते हैं और हुआ करेगे। परन्तु जब उन परिवर्तनो को समझने में उपदेशक या उपासक भूल करते हैं, आग्रह करते हैं, जो हुक्मी बनाते हैं और अपनी सिक्का जमाने के लिये समय, समाज, या परिस्थिति की अवगणना करने तक