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श्री उत्तराध्ययन सूत्र में यज्ञीय, और हरिकेशीय, अध्ययन उपरोक्त विषय का समर्थन करते हैं। उन अध्ययनों में ब्राह्मणों के लक्षण बतलाये गये हैं और साथ ही यह बात भी स्पष्टतया दर्शाई है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, यह कोई किसी तरह की जातियां नहीं हैं, परन्तु क्रिया जन्य उपनाम मात्र हैं- (देखो उत्तराध्ययन सूत्र का २५ वां और १२ वां अध्ययन (1
वर्धमान की जीवन दशा और उनके समय की परिस्थिति परसे हम उनका लक्ष्य या ध्येय सहज ही में समझ सकते हैं। निम्नलिखित एक ही वाक्य में उनका ध्येय समा जाता है। आचाराग्ड सूत्र में श्रीवर्धमान के सन्देशबाही सुधर्माने श्री वर्धमान का ढिढोरा इस प्रकार सुनाया है।
" सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दक्ख पडिकूला, अप्पियवहा, पियजीविणो, जीविकामा, सव्वेसि जीवियं पियं" ।
अर्थात् सब जीवन आयुष्य और सुखको चाहते हैं, दुख और मृत्यु सबको अप्रिय है, हर एक प्रियजीवी हैं और जीने की वृत्ति रखते हैं, जीना सबको प्यारा लगता है ( आचाराग्ड सूत्र मोर्बी वाला पृ० स० २१ ( परम योगी वर्धमान स्वभाव से दयालु न थे और न ही अदयालु थे । उन्ही की दशा उदयगत प्रयोग जैसी थी। वे अत्यन्त मित भाषी वाचंयम थे। उन्होंने अपने जीवन में यथाख्यात मार्ग को ही अवलम्बित किया था। आपद्धर्म के नाम से अपनी रक्षाके लिये उन्होने एक भी छूट न रक्खी थी । शरीर, वचन और मन ये तीनो ही उनके दास बने हुये थे। जैसे एक यत्रकार यत्र पर अपनी सत्ता. चला सकता है, और इच्छानुसार कार्य लिया था । यदि शरीर के किसी भाग मे खुजली होती तो वे खुजाते तक भी न थे, शरीर पर से मैल दूर करने की वृत्ति तक भी न रखते थे, शक्यतया आखे भी निर्निमेष रखते और सम्पूर्ण नग्नभाव धारण करके उन्होने लोकलज्जा जीतने का उग्र प्रयत्न सेवन किया था। इस दशा मे उत्तीर्ण होने के लिये वे आरण्यक - आरण्यवासी बने और बहुत लम्बे समय तक उन्होंने कठिन से कठिन ठण्डी, ताप, भूख और तृषा आदि कठिनाईयो का सामना किया था। उन्होने दीक्षित होते ही लोक प्रवाह के अनुसरण का परित्याग किया था और अपने अनुयायियो को संदेश सुनाया था । किं णो लोगस्सेसणं चरे याने लोकैषणा - लोकवाद का अनुसरण न करना, अर्थात् दुनिया की देखा देखी गतानुगत की लकीर के फकीर न बनना (आचराग्ड सूत्र मोर्बी वाला ५० स० ८४) ।
दीर्घ तपस्वी श्री वर्धमान और बुद्ध दोनों समसामयिक महात्मा थे, दोनों निर्वाणवादी महापुरूष थे और दोनों का एक ही लक्ष्य था । परन्तु लक्ष्य को