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जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
महावीर के इस अनेकान्त - शासन - रूप तीर्थ में यह खूबी खुद मौजूद है कि इससे भरपेट अथवा यथेष्ट द्वेष रखनेवाला मनुष्य भी यद्रि समदृष्टि ( मध्यस्थवृत्ति) हुना उपपत्ति चक्षुर्मे ( मात्सर्य के त्यागपूर्वक युक्तिसंगत समाधानकी दृष्टिसे ) इसका अवलोकन और परीक्षण करता है तो अवश्य ही उसका मान-शृङ्ग स्खण्डित हो जाता है— सर्वथा एकान्तरूप मिथ्यामतका प्राग्रह छूट जाता हैऔर वह अभद्र अथवा मिथ्यादृष्टि होता हुआ भी सब घोरसे भद्ररूप एवं सम्यग्दृष्टि बन जाता है । अथवा यों कहिये कि भगवान् महावीर के शासन - तीर्थका उपासक और अनुयायी हो जाता है। इसी बात को स्वामी समन्तभद्रने अपने निम्न वाक्य-द्वारा व्यक्त किया है-
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कामं द्विषन्नप्युपपतिचक्षुः समीक्षतां ते समदृष्टिरिष्टम् । त्वयि ध्रुवं खण्डितमानशृङ्गो भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः ॥
-- युक्त्यनुशासन
अतः इस तीर्थ के प्रचार-विषयमे जरा भी संकोचकी ज़रूरत नही है, पूर्ण उदारता के साथ इसका उपर्युक्त रीतिसे योग्य प्रचारकोंके द्वारा खुला प्रचार होना चाहिये और सत्रोंकी इस तीर्थकी परीक्षाका तथा इसके गुग्गोको मालूम करके इसमे यथेष्ट लाभ उठानका पूरा अवसर दिया जाना चाहिये | योग्य प्रचारकों का यह काम है कि वे जैसे तने जनतामें मध्यस्थभावको जाग्रत करें, ईर्षा - पादि-रूप मत्सर भावको हटाए, हृदयों को युक्तियों संस्कारित कर उदार बनाएँ, उनमें सत्यकी जिज्ञासा उत्पन्न करें और उस मत्यकी दर्शनप्राप्ति के लिये लोगोंकी समाधान दृष्टिको खोलें ।
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महावीर - सन्देश
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हमारा इस बक यह खास कर्तव्य है कि हम भगवान् महावीरके संदेशकोउनके शिक्षासमूहको मालूम करें, उसपर खुद अमल करें और दूसरों अमल करानेके लिये उसका घर घरमें प्रचार करें। बहुतसे जैनशास्त्रों का अध्ययन, मनन और मन्थन करने पर मुझे भगवान् महावीरका जो सन्देश मालूम हुआ है उसे मैंने एक छोटीसी कवितामें निबद्ध कर दिया है। यहाँ पर उसका दे दिया जाना भी कुछ अनुचित न होगा । उससे थोड़ेमें ही — सूत्ररूपमे महावीर