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श्रीकुन्दकुन्दाचार्य और उनके प्रन्थ ११३, १२५, १२६ नहीं है और इसलिये उसमें ग्रंथकी पद्यसंख्या १५५ है। साथ ही उसमें इस ग्रंथकी गाथा नं० १७, १८ को आगे-पीछे; ५२ व ५३, ६१ 4६६ को क्रमशः १६३ के बाद, ५४ को १६४ के बाद, ६० को १६५ के पश्चात् १०१ व १०२ को आगे पीछे; ११० व १११को १६२ के अनन्तर, १२१ को ११६ के पूर्व और १२२ को १५४ के बाद दिया है। पं० कलापा भरमापा निटवेने इस ग्रंथको सन १९०७ में मराठी अनुवादके साथ मुद्रित कराया था उसमें भी यद्यपि पद्य-संख्या १५५ है, और कमभेद भी देहली-प्रति-जैसा है, परन्तु उक्त १२ गाथाओंमें से ६३ वी गाथाका प्रभाव नहीं है-वह मौजूद है। किन्तु मा० ग्र. संस्करणकी ३५ वी गाथा नहीं है, जो कि देहली की उक्त प्रतिमें उपलब्ध है । इस तरह ग्रंथप्रतियों में पद्य-संख्या और उनके क्रमका बहुत बड़ा भेद पाया जाता है। ___ इसके सिवाय, कुछ अपभ्रंश भाषाके पद्य भी इन प्रतियोंमें उपलब्ध होते है, एक दोहा भी गाथाओंके मध्यमें आ घुसा है, विचारोंकी पुनरावृत्तिके साथ कुछ बेतरतीबी भी देखी जाती है, गण-गच्छादिके उल्लेख भी मिलते हैं और ये सब बातें कुन्दकुन्दके ग्रंथोंकी प्रकृतिके साथ संगत मालूम नहीं होतीं-मेल नहीं महीं खातीं। और इसलिये विद्वद्वर प्रोफेसर ए० एन० उपाध्येने ( प्रवचनसारकी अंग्रेजी प्रस्तावनामें) इस ग्रंथपर अपना जी यह विचार व्यक्त किया है वह ठीक ही है कि-'रयणसार ग्रंथ गाथाविभेद, विचारपुनावृत्ति, अपभ्रंश पद्योंकी उपलब्धि, गण-गच्छादि उल्लेख और बेतरतीबी आदिको लिये हुए जिस स्थितिमें उपलब्ध है उसपरसे वह पूरा ग्रन्थ कुन्दकुन्दका नहीं कहा जा सकता-- कुछ अतिरिक्त गाथाओंकी मिलावटने उमके मूलमें गड़बड़ उपस्थित कर दी है।
और इसलिये जब तक कुछ दूसरे प्रमारण उपलब्ध न हो जाएँ तब तक यह बात विचाराधीन ही रहेगी कि कुन्दकुन्द इस समग्र रयणसार ग्रंथके कर्ता हैं।' इस ग्रंथपर संस्कृ की कोई टीका उपलब्ध नहीं है ।
१५. सिद्धभक्ति-यह १२ गाथाओंका एक स्तुतिपरक ग्रंथ है, जिसमें सिद्धों की, उनके गुणों, भेदों, सुख, स्थान, प्राकृति और सिद्धिके मार्ग तथा कमका उल्लेख करते हुए, अति-भक्तिभावके साथ वन्दना की गई है। इसपर प्रभाचन्द्राचार्यकी एक संस्कृत टीका है, जिसके अन्तमें लिखा है कि-"संस्कृताः