Book Title: Jain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 279
________________ गंधस्ति महाभाज्यकी खोज संक्षिप्त सूचनावाक्य या वाक्यसमूह ही है बल्कि वह 'शास्त्र' का पर्याय नाम भी है और पद्यात्मक शास्त्र भी उससे अभिप्रेत होते है । यथा कायस्थपद्मनाभेन रचितः पूर्वमूत्रतः।-यशोधरचरित्र । तथोदिष्टं मयात्रापि ज्ञात्वा श्रीजिनसूत्रतः।-भद्रबाहुचरित्र । भणियं पवयणसार पंचत्थियसंगहं सुत्तं ।-पंचास्तिकाय । देवागमनसूत्रस्य श्रुत्वा सहर्शनान्वितः।-वि० कोरव प्रशस्ति । एतम.."मुलाराधनाटीकायां मुस्थितसूत्र में विम्नरन: समर्थितं द्रष्टव्य-प्रनगारधर्मामृत-टीका। प्रतएव तत्त्वार्थमूत्रका अर्थ ' तत्त्वार्थविषयक शास्त्र' होता है और इसीसे उमास्वातिका तत्त्वार्थसूत्र 'तत्वार्थशास्त्र' और 'नत्त्वार्थाधिगममोक्षशास्त्र' कहलाता है। "मिद्धान्तशास्त्र' और 'राद्धान्तसूत्र' भी तत्त्वार्थशास्त्र प्रथवा तत्त्वार्थमूत्रके नामान्तर है । इसीमे पायेदेवको एक जगह तत्त्वार्थमूत्र'का और दूसरी जगह राद्धान्त का कर्ता लिम्बा है । और पुष्पदन्न. भूतबल्यादि प्राचार्योद्वारा विरचित सिद्धान्तगास्त्रको भी तत्त्वार्थशास्त्र या तत्त्वार्थमहागास्त्र कहा जाता है । इन सिद्धान्त मास्त्रोंपर •तुम्बुलूराचार्यने कनडी भाषामे 'चुडामणि नामकी एक बड़ी टीका लिखी है, जिसका परिमागग इन्द्रनन्दिकृत 'श्रतावतार में ८४ हजार और 'कर्णाटकशब्दानुशासन' में ६६ हजार श्लोकोंका बतलाया है। भट्टाकलंकदेवनं. ७ अपने कर्णाटक शब्दानुशासन' में कनड़ी भाषाकी यह गाथाबद्ध भगवती प्राराधना' शास्त्रके एक अधिकारका नाम है। + यथा-(१)".......प्रवरि तत्त्वार्थसूत्रकर्तुगल एनिमिद् आर्यदेवर..." -नगरताल्लुकेका शि० लेख नं० ३५" (२)"प्राचार्यवयों यतिरायं देवो राधान्तकर्ता ध्रियतां स मनि । -श्रवणबेल्गुल शिलालेख नं० ५४ (६७) ये 'प्रष्टगती' प्रादि ग्रन्थोंके कर्तास भिन्न दूसरे भहाकलक है, जो विक्रमको १७वीं शताब्दी में हुए है । इन्होंने कर्णाटकगन्दानुशासनको ई० सन् १६०४(यक१५२६ ) में बनाकर समाप्त किया है।

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