Book Title: Jain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

View full book text
Previous | Next

Page 160
________________ १५४ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश भी स्पष्ट हो जाता है कि शांतिवर्मा समन्तभद्रका ही नाम था। ___ वास्तवमें ऐसे ही महत्त्वपूर्ण काव्यग्रंथोंके द्वारा समन्तभद्रकी काव्यकीर्ति जगतमें विस्तारको प्राप्त हुई है। इस ग्रंथमें आपने जो अपूर्व शब्दचातुर्यको लिये हुए निर्मल भक्तिगंगा बहाई है उसके उपयुक्त पात्र भी आप ही है । आपसे भिन्न 'शांतिवर्मा' नामका कोई दूसरा प्रसिद्ध विद्वान् हुा भी नहीं । इस लिये उक्त शंका निर्मूल जान पड़ती है । हाँ, यह कहा जा सकता है कि समतभद्रने अपने मुनिजीवनसे पहले इस ग्रंथकी रचना की होगी । परन्तु ग्रन्थके साहित्य परसे इसका कुछ भी समर्थन नहीं होता। प्राचार्यमहोदयने, इस ग्रन्थमें, अपनी जिस परिगति और जिस भावमयी मूर्ति को प्रदर्शित किया है उससे अापकी यह कृति उल्लेख कुछ भिन्न है। उत्तरमें आपने यह सूचित किया कि यह उल्लेख पं० वंशीधरजीकी लिखी हई अष्टमहस्रीकी प्रस्तावना परमे लिया गया है, इसलिये इस विषयका प्रश्न उन्हीं करना चाहिये। अष्टमहस्रीकी प्रस्तावना (परिचय) को देखने पर मालूम हुया कि इसमें 'इनि' में 'ममन्तभद्रेगा' तकका उक्त उल्लेख ज्योंका त्यों पाया जाता है, उसके शुरूम ‘काँटदेशतो लब्धपुस्तके' और अनमें 'इत्याद्य ल्लेखो दृश्यते' ये शब्द लगे हुए हैं। इसपर ता० ११ जुलाईको एक रजिस्टर्ड पत्र पं० वंशीधरजीको शोलापूर भेजा गया और उनमें अपने उक्त उल्लेखका खुलासा करनेके लिये प्रार्थना की गई। माथ ही यह भी लिखा गया कि 'यदि अापने स्वयं उम कर्णाट देगमे मिली हुई पुस्तकको न देखा हो तो जिस आधार पर आपने उक्त उल्लेख किया है उसे ही कृपया सूचित कीजिये। ३ री अगस्त सन् १९२४ को दूसरा रिमाण्डर पत्र भी दिया गया परन्तु पडितजीने दोनोंमेंमे किसीका भी कोई उत्तर देनेकी कृपा नहीं की। और भी कहीमे इस उल्लेखका समर्थन नहीं मिला। ऐसी हालतमे यह उल्लेख कुछ संदिग्ध मालूम होता है । आश्चर्य नही जो जनहितपीम प्रकाशित उक्त 'प्राप्तमीमांसा' के उल्लेखकी ग़लत स्मृति परमे ही यह उल्लेख कर दिया गया हो; क्योंकि उक्त प्रस्तावनामें ऐसे और भी कुछ ग़लत उल्लेख पाये जाते है जैसे 'कांच्या नग्नाटकोऽहं' नामक पद्यको मल्लिषेणप्रशस्तिका बतलाना, जिसका वह पद्य नहीं है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280