Book Title: Jain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

View full book text
Previous | Next

Page 222
________________ २१८ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश गौर क्यों किये देता है ? दूसरोंके हितके लिये ही यदि तू अपने स्वार्थकी थोड़ीसी बलि देकर - अल्पकालके लिये मुनिपदको छोड़कर बहुतों का भला कर सके तो इसमे तेरे चरित्र पर जरा भी कलंक नहीं आ सकता, वह तो उलटा और भी ज्यादा देदीप्यमान होगा; श्रतः तु कुछ दिनोंके लिये, इसमुनिपदका मोह छोड़कर और मानापमानकी जरा भी पर्वाह न करते हुए अपने रोगको शांत करनेका यत्न कर, वह निःप्रतीकार नही है, इस रोगसे मुक्त होनेपर, स्वस्थावस्था में, तू और भी अधिक उत्तम रीतिमे मुनिधर्मका पालन कर सकेगा; अविलम्व करनेकी ज़रूरत नहीं हैं, विलम्व हानि होगी ।" इस तरह पर समन्तभद्रके हृदयमे कितनी ही देर तक विचारोंका उत्थान और पतन होता रहा । अन्तको आपने यही स्थिर किया कि "क्षुबादिदुःखोंमे घबराकर उनके प्रतिकारके लिये अपने न्याय्य नियमोंको तोड़ना उचित नहीं है; लोकका हित वास्तवमे लोकके प्राश्रित है और मेरा दिन मेरे आश्रित है। यह ठीक है कि लोककी जितनी सेवा में करना चाहता था उसे में नहीं कर सका, परन्तु उस सेवाका भाव मेरे ग्रात्मामें मौजूद है और में उसे अगले जन्ममे पुरा करूंगा, इस समय लोकहितकी आशा पर श्रात्महितको विगाहना मुनासिब नहीं है; इसलिये मुझे अब सल्लेखना' का व्रत जरूर ले लेना चाहिये और मृत्युकी प्रतीक्षामे बैठकर शान्तिके साथ इस देहका धर्मार्थ त्याग कर देना चाहिये ।" इस forest लेकर समन्तभद्र सल्लेखनावनकी श्राज्ञा प्राप्त करनेके लिये अपने वयोवृद्ध, तपोवृद्ध और अनेक सद्गुणालंकृत पूज्य गुरुदेव के पास पहुँचे और उनसे अपने रोगका सारा हाल निवेदन किया। साथ ही, उनपर यह प्रकट करते हुए कि मेरा रोग नि.प्रतीकार जान पड़ता है और रोगकी निःप्रतीकारावस्थामे 'सल्लेखना' का दशरण लेना ही श्रेष्ठ कहा गया है। यह विनम्र प्रार्थना • * 'राजावलीक' से यह तो पता चलता है कि समन्तभद्रके गुरुदेव उम समय मौजूद थे और समन्तभद्र सल्लेखना की प्राज्ञा प्राप्त करनेके लिये उनके पास गये थे, परन्तु यह मालूम नही हो सका कि उनका क्या नाम था । + उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां व निःप्रतीकारे । धर्मा ननुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥१२२॥ - रत्नकरंड

Loading...

Page Navigation
1 ... 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280