Book Title: Jain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 261
________________ स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनों थे २५७ सूचित करता है। रत्नकरण्ड भी उन्हीं तर्कप्रधानता-रहित ® ग्रन्थोंमेंसे एक पंथ है और इसलिये उसकी यह तर्क-हीनता सन्देहका कोई कारण नहीं हो सकती। ऐसा कोई नियम भी नहीं है जिससे एक ग्रन्थकार अपने सम्पूर्ण ग्रंथमें एक ही पद्धतिको जारी रखनेके लिये बाध्य हो सके। नानाविषयोंके ग्रंथ नाना प्रकारके शिष्योंको लक्ष्य करके लिखे जाते हैं और उनमें विषय तथा शिष्यरुचिकी विभिन्नताके कारण लेखन-पद्धतिमें भी अक्सर विभिन्नता हुमा करती है। ऐसी हालतमें प्रेमीजीने रत्नकरण्ड-श्रावकाचारके कर्तृत्व-विषयपर जो आशंका की है उसमें कुछ भी सार मालूम नहीं होता । आशा है इस लेखपरसे प्रेमजी अपनी शंकाका यथोचित समाधान करने में समर्थ हो सकेंगे। ___ ऐसा भी नहीं कि रत्नकरण्डमें तर्कमे बिल्कुल काम ही न लिया गया हो। प्रावश्यक तर्कको यथावसर बराबर स्थान दिया गया है । जरूरत होनेपर उसका अच्छा स्पष्टीकरण किया जायगा । यहाँ सूचनारूपमें ऐसे कुछ पद्योंके नम्बरोंको ( १५० की संख्यानुसार ) नोट किया जाता है, जिनमें तर्कसे कुछ काम लिया गया है अथवा जो तर्कदृष्टिको लक्ष्यमें रख कर लिखे गये हैं :-५, ८, ६, २१, २६, २७, २९, ३०, ३१, ३२, ३३, ४७, ४८, ५३, ५६, ६७, ७०, ७१, ८२, ८४, ८५, ८६, ६५, १०२, १२३ ।

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