Book Title: Jain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 248
________________ २४४ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश कथनोंकी पुष्टि भी इस 'सिद्ध सारस्वत' विशेषणसे भले प्रकार हो जाती है। . समन्तभद्रकी वह सरस्वती (वाग्देवी) जिनवाणी माता थी जिसकी अनेकामतदृष्टिद्वारा अनन्य आराधना करके उन्होंने अपनी वाणीमें वह अतिशय प्रात किया था जिसके मागे सभी नततस्तक होते थे और जो आज भी सहृदय विद्वानों को उनकी ओर आकर्षित किए हुए है। यहाँपर में इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि उक्त गुटकेमें जो दूसरे दो पद्य पाये जाते है उनमें कहीं-कहीं कुछ पाठभेद भी उपलब्ध होता है, जैसे कि प्रथम पद्यमें 'ताडिता' की जगह पाटिता' 'वैदिशे' की जगह 'वैद्रों 'बहुभटं विद्योत्कटं' की जगह 'बहुभटैविद्योत्कट:' और 'शार्दूलविक्रीडित' की जगह 'शार्दूलवत्क्रीडितु" पाठ मिलता है। दूसरे पद्यमें 'कांच्या' की जगह 'कांच्या' 'लांबुशे' की जगह 'लांबुसे', 'डोडे' की जगह "पिंडोई', 'शाक्यभिक्षुः' की जगह 'शाकभक्षी', 'वाराणस्यामभूवं' की जगह 'वागरणम्यां बभूव', 'शशधरधवल:' की जगह 'शशधग्धवला' और 'यस्यानि' की जगह 'जस्यास्ति' पाठ पाया जाता है । इन पाठभेदोंमें कुछ तो माधारण है, कुछ लेखकोंकी लिपि की अशुद्धिके परिणाम जान पड़ते हैं और कुछ मौलिक भी हो सकते है। 'शाक्यभिक्षः' की जगह 'शाकभक्षी' जैसा पाठभेद विचारणीय है। भट्टारक प्रभाचन्द्र और ब्रह्म मिदत्त के कथाकोपोंमे जिस प्रकार ममन्तभद्रकी कथा दी है उसके अनुसार तो वह 'शाक्यभिक्षुः' ही बनता है; परन्तु यह भी हो सकता है कि उम पाठके कारण ही कथाको वैसा रूप दिया गया हो और वह 'मिष्टभोजी पग्विाट्' मे मिलता जुलता 'शाकभीजी' परिवाटका वाचक हो । कुछ भी हो, अभी निश्चितरूपमे एक बात नहीं कही जा सकती । इस विषयमें अधिक खोजकी पावश्यकता है।

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