Book Title: Jain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 195
________________ स्वामी समन्तभद्र १६१ स्था लिखते हैं कि 'जिन्होंने परीक्षावानोंके लिये संपूर्ण कुनीति-वृत्तिरूपी नदियोंको सुखा दिया है और जिनके वचन निर्दोषनीति (स्याद्वादन्याय) को लिये हुए होनेकी वजहमे मनोहर हैं तथा तत्त्वार्थसमूहके द्योतक है वे यतियोंके नायक, द्वादमा अग्रणी, विभु और भानुमान् (तेजस्वी ) श्रीसमन्तभद्र स्वामी कलुषाशयति प्राणियोंको विद्या और श्रानंदघनके प्रदान करनेवाले होवें। इससे स्वामी समंतभद्र और उनके वचनोंका बहुत ही अच्छा महत्त्व ख्यापित होता है । गुणान्विता निर्मलवृनमीकिका नरोन मैः कण्ठविभूषणीकृता । न हारयष्टिः परमेव दुर्लभा समन्तभद्रादिभवा च भारती ॥ ६ ॥ --- -चन्द्रप्रभवति । इस पद्यमें महाकवि श्रीवीरनंदी प्राचार्य, समंतभद्रकी भारती ( वाणी )को उस हारयष्टि ( मोनियों की माला ) के समकक्ष रखते हुए जो गुग्गों ( सूतके धागो) में गूंथी हुई है, निर्मल गोल मोतियोंसे युक्त है और उत्तम पुरुषकि कंठका विभूषण बनी हुई हैं, यह सूचित करते हैं कि समंतभद्रकी वाणी अनेक सद्गुणों को लिये हुए हैं, निर्मल वृत्त रूपी मुक्ताफलोंग युक्त है और बड़े बड़े श्राचार्यो तथा विद्वानोंने उसे अपने कंठका आभूषण बनाया है । साथ ही, यह भी बतलाते हैं कि उस हारयष्टिको प्राप्त कर लेना उतना कठिन नही हैं जितना कठिन कि सभी भारती को पा लेना - उसे समझकर हृदयंगम कर लेनाऔर उससे स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि समतभद्रके वचनोका लाभ बड़े ही भाग्य है । तथा परिश्रमसे होता है । श्री नरेन्द्रसेनाचार्य भी, अपने 'सिद्धान्नसारसंग्रह में, ऐसा ही भाव प्रकट करते हैं । आप समंतभ दके वचनको 'ग्रनघ' (निष्पाप) सूचित करते हुए उसे मनुष्यत्व की प्राप्तिकी तरह दुर्लभ बतलाते है । यथाश्रीमत्सतस्य देवस्यापि वचोऽनघ । प्राणिनां दुर्लभं यद्वन्मानुपत्वं तथा पुनः ।। ११ ।। शक संवत् ७०५ मे 'हरिवशपुराण' को बनाकर समाप्त करनेवाले श्रीजिनेसेनाचार्यने समंतभद्रके वचनोंको किस कोटिमे रक्खा है और उन्हें किस महा * वृतान्न, चरित, प्राचार, विधान अथवा छन्द |

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