Book Title: Jain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

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Page 200
________________ १६६ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश हित चाहते हैं । ग्रन्थकी कुछ प्रतियोंमें 'हितमिच्छतां' की जगह 'हित मिच्छता' पाठ भी पाया जाता है। यदि यह पाठ ठीक हो तो वह ग्रन्थरचयिता समन्तभद्रका विशेषण है और उससे यह अर्थ निकलता है कि यह प्राप्तमीमांसा हित चाहनेवाले समन्तभद्र के द्वारा निर्मित हुई है; बाकी निर्माणका उद्देश्य ज्योंका त्यों कायम ही रहता है-दोनों ही हालतोंमें यह स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ दूसरोंका हित सम्पादन करने-उन्हें हेयादेयका विशेष बोध करानेके लिये ही लिखा गया है। न रागान्नः स्तोत्रं भवति भवपाशच्छिदि मुनी न चान्येषु द्वेषादपगुणकथाभ्यासखलता । किमु न्यायान्यायप्रकृतगुग्गदोपज्ञमनसां। हितान्वेषोपायस्तव गुणकथासंगगदितः ।। यह 'युक्त्यनुशासन' नामक स्तोत्रका, अन्तिम पद्यसे पहला, पद्य है। इसमें प्राचार्य महोदयने बडे ही महत्वका भाव प्रदर्शित किया है। आप श्रीवर्तमान ( महावीर ) भगवान् को सम्बोधन करके उनके प्रति अपनी इम स्तोत्र-रचनाका जो भाव प्रकट करते हैं उमका म्पप्राशयः दम प्रकार है---- (हे वीर भगवन् !) हमारा यह स्तोत्र पाप जैसे भवपाशदक मुनिके प्रति रागभावमे नही है, न हो सकता है: क्योंकि इधर ना हम परीक्षाप्रधानी है पीर उधर ग्रापने भवपागको छेद दिया है-मंसारमे अपना सम्बन्ध ही अलग कर लिया है-ऐसी हालतमे अापके व्यक्तित्व के प्रति हमाग गगभाव इम स्तोत्रकी उत्पनिका कोई कारण नहीं हो मकना । दूसरोके प्रति द्वेषभावमे भी इस स्तोत्रका कोई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि एकान्तवादियोंके माथ- उनके व्यक्तित्वक प्रतिहमारा कोई द्वेष नही है। हम तो दुगुं गोंकी कथाके अभ्यामको भी म्बलता समझते हैं और उम प्रकारका अभ्याम न होनमे वह 'म्बलना हममें नहीं है, और इम लिये दूसरोक प्रति कोई प्रभाव भी इस स्तोत्रको उत्पनिका कारण नहीं हो सकता । तब फिर इसका हेतु अथवा उद्देश ? उग यही है कि जो रम स्पष्टागयके लिखनमें धीविद्यानंदाचार्यकी टीकामे कितनी ही महायता ली गई है।

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