Book Title: Jain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta

View full book text
Previous | Next

Page 213
________________ समन्तभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल २०६ मुनिपदके विरुद्ध समझते थे । त्याग किया था श्रीर नैग्रंथ्य - प्राश्रममें प्रविष्ट होकर अपना प्राकृतिक दिगम्बर वेष धारण किया था। इसीलिये श्राप अपने पास कोई कौड़ी पैसा नहीं रखते थे, बल्कि कौड़ी - पैसे से सम्बन्ध रखना भी अपने पके पास शौचोपकरण ( कमंडलु ), संयमोपकरण (पीछी) श्रीर ज्ञानोपकरण ( पुस्तकादिक) के रूपमें जो कुछ थोड़ीमी उपधि थी उसमे भी श्रापका ममत्व नहीं था — भले ही उसे कोई उठा ले जाय, आपको इसकी जरा भी चिन्ता नहीं थी । आप सदा भूमिपर शयन करते थे और अपने शरीरको कभी संस्कारित अथवा मंडित नही करते थे, यदि पसीना आकर उस पर मैल जम जाना था तो उसे स्वयं अपने हाथमे धोकर दूसरोंको अपना उजलारूप दिखानेकी भी कभी कोई चेष्टा नहीं करते थे बल्कि उस मलजनित परीपहको साम्यभाव जीतकर कर्ममलको धोनेका यत्न करते थे, और इसी प्रकार नग्न रहते तथा दूसरी सरदी गरमी प्रादिकी परीषहोंको भी खुशीखुशीने महन करते थे । इससे आपने अपने एक परिचय में गौरव के साथ अपने आपको 'नग्नाटक' और 'मन्नमलिननन्' भी प्रकट किया है। * समंतभद्र दिनमें सिर्फ एक बार भोजन करने थे, रात्रिको कभी भोजन नहीं करते थे, और भोजन भी आगमोदित विधिके अनुसार शुद्ध, प्रामुक तथा निर्दोष ही लेते थे । वे अपने उस भोजनके लिये किसter freeगा स्वीकार नहीं करने थे, किसीको किमी रूपमें भी अपना भोजन करने-कराने के लिये प्रेरित नहीं करते थे, और यदि उन्हें यह मालूम हो जाता था कि किसीने उनके उद्देश्यगे कोई भोजन तय्यार किया है अथवा किसी दूसरे अतिथि ( मेहमान ) के लिये तय्यार किया हुआ भोजन उन्हें दिया जाता है तो वे उस भोजनको नहीं लेने थे । उन्हें उसके में मावद्यकर्मके भागी होनेका दीप मालूम पड़ता था और कसे वे सदा अपने आपको मन-वचन-काय तथा कृत-कारिन अनुमोदनद्वारा दूर रखना चाहते थे । वे उसी शुद्ध भोजनको अपने लिये कल्पित श्रीर शास्त्रानुमोदित समते थे जिसे दातारने स्वयं अपने अथवा अपने कुटुम्बके लिये * 'कांच्यां नग्नाटको मलमलिनतनुः इत्यादि पद्य में ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280