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श्री कुन्दकुन्दाचार्य और उनके प्रन्थ
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कुछ ऐतिहासिक बातोंका भी पता चलता है, और इससे यह भक्तिपाठ बड़ा ही महत्वपूर्ण जान पड़ता है ।
१६. श्राचार्यभक्ति — इसमें १० गाथाएँ हैं और उनमें उत्तम श्राचार्यक गुणों का उल्लेख करते हुए उन्हें नमस्कार किया गया है। आचार्य परमेष्ठी किन किन खास गुणोंसे विशिष्ट होने चाहियें, यह इस भक्तिपाठपरसे भले प्रकार जाना जाता है ।
२०. निर्वाणभक्ति - इसकी गाथासंख्या २७ है। इसमें प्रधानतया निर्वाणको प्राप्त हुए तीर्थंकरों तथा दूसरे पूतात्म-पुरुषोंके नामोंका, उन स्थानोंके नाम सहित स्मरण तथा वन्दन किया गया है जहाँसे उन्होंने निर्वारण-पदकी प्राप्ति की है। साथ ही, जिन स्थानोंके साथ ऐसे व्यक्ति-विशेषोंकी कोई दूसरी स्मृति खास तौरपर जुड़ी हुई है ऐसे अतिशय क्षेत्रोंका भी उल्लेख किया गया है और उनकी तथा निर्वाणभूमियोंकी भी वन्दना की गई है । इस भक्तिपाठपर से कितनी ही ऐतिहासिक तथा पौराणिक वातों एवं अनुश्रुतियोंकी जानकारी होती है, और हम दृष्टिसे यह पाठ अपना खास महत्व रखता है ।
२१. पंचगुरु (परमेष्ठि) भक्ति - इसकी पद्यसंख्या ७ ( ६ ) है । इसके प्रारम्भिक पांच पद्योंमें क्रमशः श्रहेतु, सिद्ध, ग्राचार्य, उपाध्याय और साधु ऐमे पाँच गुरुवों-परमेष्ठियों का स्तोत्र है, छटे पद्यमें स्तोत्रका फल दिया है और ये छहों पद्य सृग्विणी चंदमें हैं । अन्तका व पद्य गाथा है, जिसमें अर्हदादि पंच परमेष्ठियों के नाम देकर और उन्हें पंचनमस्कार (ग्रामोकार मंत्र ) के अंगभूत तलाकर उनमे भवभवमें सुखकी प्रार्थना की गई है। यह गाया प्रक्षिप्त जान पड़ती है । इस भक्तिपर प्रभाचन्द्रकी संस्कृत टीका नहीं है ।
२२. श्रोस्सामि थुद्धि - ( तीर्थकर भक्ति ) - यह 'थोस्मामि' पदसे प्रारंभ होनेवाली प्रष्टगाथात्मक स्तुति है. जिसे 'तित्थयरभक्ति' (तीर्थंकरभक्ति) भी कहते हैं। इसमें वृषभादि- वर्द्धमान- पर्यन्त चतुविशति तीर्थंकरोंकी. उनके नामोल्लेख-पूर्वक, वन्दना की गई है और तीर्थंकरोंके लिये जिन जिनवर, जिनवरेन्द्र, नरप्रवर, केवली अनन्तजिन, लोकमहित, धर्मतीर्थंकर, विधृत-रज-मल, लोकोद्योतकर, अर्हन्त, प्रहीन - जर-मरण, लोकोत्तम, सिद्ध, चन्द्र-निर्मलतर, प्रादित्याधिक प्रभ और सागरमिव गम्भीर जैसे विशेषरणों का प्रयोग किया गया है । और अन्तमें