________________
११६
जैमसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
व्यते' इत्यादि श्लोकोंके द्वारा सिद्धगतिका स्वरूप कहा ही है, इसलिये उक्त सूत्ररूपसे पाठान्तर निरर्थक है ।
यहाँ 'कुलालचके' इत्यादिरूपसे जिन इलोकों का सूचन किया है वे उक्त सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रके अन्तमें लगे हुए ३२ इलकोंमेंसे १०, ११, १२, १४ नम्बरके श्लोक हैं, जिनका विषय वही है जो उक्त सूत्रका- -- उक्त सूत्रमें वरिंगत चार उदाहरणोंको अलग-अलग चार श्लोकोंमें व्यक्त किया गया है। ऐसी हालतमें उक्त सूत्रके सूत्रकारकी कृति होने में क्या बाधा आती है उसे यहाँ पर कुछ भी स्पष्ट नही किया गया है। यदि किसी बातको श्लोकमें कह देने मात्रसे ही उस आशयका सूत्र निरर्थक हो जाता है और वह सूत्रकारकी कृति नही रहता, तो फिर २२वें श्लोकमें ‘धर्मास्तिकायस्याभावात् स हि हेतुर्गतेः परः ' इस पाठ के मौजूद होते हुए टिप्पणकारने "धर्मास्तिकायाभावात् " यह सूत्र क्यों माना ? - उसे सूत्रकारकी कृति होनेसे इनकार करते हुए निर्रथक क्यों नहीं कहा ? यह प्रश्न पैदा होता है, जिसका कोई भी समुचित उत्तर नहीं बन सकता । इस तरह तो दसवें अध्यायके प्रथम छह सूत्र भी निर्रथक ही ठहरते हैं; क्योंकि उनका सब विषय उक्त ३२ श्लोकोंके प्रारम्भके ६ श्लोकों में आगया हैउन्हें भी सूत्रकारकी कृति न कहना चाहिये था । श्रतः टिप्पणकारका उक्त तर्क निःसार है - उसमे उसका अभीष्ट सिद्ध नही हो सकता, अर्थात् उक्त दिगम्बर सूत्र पर कोई आपत्ति नहीं आ सकती । प्रत्युत इसके, उसका सूत्रपाठ उसी के हाथों बहुत कुछ प्रापत्तिका विषय बन जाना है ।
(६) इम सटिप्पण प्रतिके कुछ सूत्रोंमें थोड़ासा पाठ भेद भी उपलब्ध होता -जैसे कि तृतीय अध्यायके १०वे सूत्रके शुरू में 'तत्र' शब्द नहीं है वह दिगम्बर सूत्रपाठकी तरह 'भरतहैमवत हरिविदेह' में ही प्रारम्भ होता है । और छठे अध्याय के छठे (दि० ५ वें सूत्रका प्रारम्भ ) ' इन्द्रियकपायत्रतक्रियाः ' पदमे किया गया है, जैसे कि दिगम्बर सूत्रपाठमें पाया जाता है और सिद्धसेन तथा हरिभद्रकी कृतियोंमें भी जिसे भाव्यमान्य सूत्रपाठके रूपमें माना गया है; परन्तु बंगाल एशयाटिक सोसाइटीके उक्त संस्करणमें उसके स्थानपर 'अत्रतकषायेद्रियक्रियाः ' पाठ दिया हुआ है और पं०सुखलालजीने भी अपने अनुवादमें उमी को स्वीकार किया है, जिसका कारण इस सूत्र के भाष्यमें 'अम्रत' पाठका प्रथम