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तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता कुन्दकुन्द
१०५ और उमास्वाति दोनोंको एक ही व्यक्ति समझ लिया हो और इसीलिये तत्वार्थसूत्रके कर्तृत्वरूपसे कुन्दकुन्दाचार्यका नाम दे दिया हो । यदि ऐसा है, और इसीकी सबसे अधिक संभावना है, तो यह स्पष्ट भूल है। दोनोंका व्यक्तित्व एक नहीं था। उमास्वाति कुन्दकुन्दके वंशमें एक जुदे ही प्राचार्य हए है, और वे ही गृध्रांखोंकी पीछी रखने मे गृधपिच्छ कहलाते थे। जैसा कि कुछ श्रवणबेल्गोलके निम्न शिलालेखोंमे भी पाया जाता है :
श्रीपद्मनन्दीत्यनवधनामा ह्याचार्यशब्दात्तरकोण्डकुन्दद्वितीयमासीदभिधानमुद्यचरित्रसंजातसुचारणद्धिः ।। अभूदुमास्वातिमुनीश्वराऽसावाचार्यशब्दोत्तरगृधू पिञ्छः । तदन्वये तत्सदशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थवेदी । तदीयवंशाकरतः प्रसिद्धादभूददोषा यतिरत्नमाला । बभौ यदन्तर्मणिवन्मुनीन्द्रस्स कौण्डकुन्दोदितचंडदंड: अभूदुमास्वातिमुनिः पवित्र वंशे तदीये सकलार्थवेदी सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुंगवेन सप्राणिसंरक्षणासावधानो बभार योगीकिलगृद्धपक्षान् ।
तदाप्रभृत्येव बुधायमाहुराचार्यशब्दोत्तरगृद्धपिञ्छ । यहाँ शिलालेख नं० ४७ में कुन्दकुन्दका दूसरा नाम 'पद्मनंदी' दिया है और इसी का उल्लेख दूसरे शिलालेखों आदिमें भी पाया जाता है। बाकी पट्टावलियों (गुर्वावलियो) में जो गृद्ध पिच्छ, एलाचार्य और वक्रग्रीव नाम अधिक दिये हैं उनका समर्थन अन्यत्र से नहीं होता । गृद्धपिच्छ (उमास्वाति) की तरह एलाचार्य और वक्रीव नामके भी दूसरे ही प्राचार्य हो गये है। और इस लिये पट्टावली की यह कल्पना बहुत कुछ संदिग्ध नथा आपत्ति के योग्य जान पड़ती है।