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१०८ जैनसाहित्य और इतिहासपर विराद प्रकाश
(४) नन्दिसङ्घकी 'पट्टावली' में भी कुन्दकुन्दाचार्यके बाद छठे नम्बर पर 'उमास्वाति' नाम ही पाया जाता है।
(५) बालचन्द्र मुनिकी बनाई हुई तत्वार्थसूत्रकी कनडी टीका भी 'उमास्वाति' नामका ही समर्थन करती है और साथ ही उसमें 'गृध्रपिञ्छाचार्य' नाम भी दिया हुआ है । बालचन्द्र मुनि विक्रमकी १३ वीं शताब्दीके विद्वान् हैं।
(६) विक्रमकी १६वीं शताब्दीसे पहले का ऐसा कोई अन्य अथवा गिला. लेख प्रादि अभी तक मेरे देखने में नहीं पाया जिसमें तत्वार्थसूत्रके कर्ताका नाम 'उमास्वामी' लिखा हो । हाँ, १६वीं शताब्दीके बने हुए श्रुतसागरसूरिके ग्रन्थोंमें इस नामका प्रयोग जरूर पाया जाता है। श्रुतसागरसूरिने अपनी श्रुतसागरी टीकामें जगह-जगह पर यही (उमास्वामी) नाम दिया है और 'पौदार्यचिन्तामणि' नामके व्याकरण ग्रन्थमें 'श्रीमानुमाप्रभुरनन्तरपूज्यपादः' इम वाक्यमें प्रापने 'उमा' के साथ 'प्रभु' शब्द लगाकर और भी साफ तौरमे 'उमास्वामी' नामको सूचित किया है । जान पड़ता है कि 'उमास्वाति' की जगह 'उमास्वामी' यह नाम श्रुतसागरमूरिका निर्देश किया हुआ है और उनके समय से ही यह हिन्दी भाषा आदिके ग्रन्थोंमें प्रचलित हुआ है । और अब इसका प्रचार इतना बढ़ गया कि कुछ विद्वानोंको उसके विषयमें बिलकुल ही विपर्यास हो गया है और वे यहाँतक लिखनेका साहस करने लगे है कि तत्त्वार्थमूत्रके कर्ताका नाम दिगम्बरोंके अनुसार 'उमास्वामी' और श्वेताम्बरोंके अनुसार 'उमास्वाति' है ।
(७) मेरी रायमें, जब तक कोई प्रबल प्राचीन प्रमाण इस बातका उपलब्ध न हो जाय कि १६ वीं शताब्दीसे पहले भी 'उमास्वामी' नाम प्रचलित था, तब तक यही मानना ठीक होगा कि प्राचार्य महोदयका असली नाम 'उमास्वाति' तथा इसका नाम 'गृद्धपिच्छाचार्य' था और 'उमास्वामी' यह नाम श्रुतसागर सूरिका निर्देश किया हुआ है । यदि किसी विद्वान महाशयके पास इसके विरुद्ध कोई प्रमाण मौजूद हो तो उन्हें कृपाकर उसे प्रकट करना चाहिये।
देसी, कार्यसूत्रके अंग्रेजी अनुवादकी प्रस्तावना :