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जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
काल-परिमाण ६८३ वर्ष बतलाते हुए यह स्पष्टरूपसे निर्दिष्ट किया है कि इस ६८३ वर्षके काल से ७७ वर्ष ७ महीने घटा देने पर जो ६०५ वर्ष ५ महीनेका काल अवशिष्ट रहता है वही महावीरके निर्वारणदिवससे शंककालकी प्रादि-- शक संवत्की प्रवृत्ति - तकका मध्यवर्ती काल है; अर्थात् महावीरके निर्वाणदिवस से ६०५ वर्ष ५ महीनेके बाद शकसंवत्का प्रारम्भ हुआ है। साथ ही इस मान्यताके लिये काररणका निर्देश करते हुए, एक प्राचीन गाथाके अाधार पर यह भी प्रतिपादन किया है कि इस ६०५ वर्ष ५ महीनेके कालमे शककालको - शक संवत्की वर्षादि संख्याको -- जोड़ देनेसे महावीरका निर्वारणकाल -- निर्वारणसंवत्का ठीक परिमाण- -श्रा जाता है। और इस तरह वीर निर्वारण संवत् मालूम करनेकी स्पष्ट विधि भी सूचित की है । धवलके वे वाक्य इस प्रकार हैं
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"सत्र्वकालसमासो तेयासीदिहियछस्सदमेत्ता (६८३) । पुरा एत्थ सत्तमासाहियसत्तहत्तरिवासेसु (७७-७) अबीदेसु पचमासाहिय-पंचुत्तरइस्सदवासारिण (६०५-५) हवंति, एसो वीरजिदि णिच्चारणगद दिवसादो जाव सगकालस्स आदी होदि तावदिय कालो । कुदो ? एदम्मि काले सगणरिंदकालस्स पक्खित्ते वढूमा जिब्दिकालागमणादे । । वुनंचपंच य मासा पंच य वासा श्रं व होति वाससया । सगकाले य सहिया थावेयव्वा तदो रासी ॥"
- देखो, प्रारा जैन सिद्धान्तभवनकी प्रति पत्र ५३७ इस प्राचीन गाथाका जो पूर्वार्ध है वही श्वेताम्बरो "तित्थोगाली पइन्नय' नामक प्राचीन प्रकरणकी निम्न गायाका पूर्वार्ध है
पंच य मासा पंच य वामा छच्चे व होति वाससया । परिरिगव्वुस्सऽरिहतो तो उप्पन्नो सगो राया ।। ६२३ ।।
और इससे यह साफ़ जाना जाता है कि 'तित्थोगाली' की इस गाथामे जो ६०५ वर्ष ५ महीने के बाद शकराजाका उत्पन्न होता लिखा है वह शककान्नके उत्पन्न होने अर्थात् शकसंवत् के प्रवृत्त होनेके श्राशयको लिये हुए हैं। और इस तरह महावीरके इस निर्वारणसमय-सम्बन्धमें दोनों सम्प्रदायोंकी एक वाक्यता पाई जाती है ।