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वीरनिर्वाणसंवत्की समालोचनापर विचार ४६ की जाती। और इस तरह उन्हें यह बात भी अँच जाती कि जैन कालगणनामें वीरनिर्वाणके गत वर्ष ही लिये जाते रहे हैं । इसी बातको दूसरी तरहसे यों भी समझाया जा सकता है कि गत कार्तिकी अमावस्याको शक सम्वत्के १८६२ वर्ष ७ महीने व्यतीत हुए थे, और शक सम्वत् महावीरके निर्वाणसे ६०५ वर्ष ५ महीने बाद प्रवर्तित हुआ है। इन दोनों संख्याओंको जोड़ देनेसे पूरे २४६८ वर्ष होते हैं । इतने वर्ष महावीरनिर्वाणको हुए गत कार्तिकी अमावस्याको पूरे हो चुके हैं और गत कार्तिक शुक्ला प्रतिपदासे उसका २४६६ वाँ वर्ष चल रहा है; परन्तु इसको चले अभी डेढ़ महीना ही हुआ है और डेढ़ महीनेकी गणना एक वर्षमें नहीं की जा सकती, इमलिये यह नहीं कह सकते कि वर्तमानमें वीरनिर्वाणको हए २४६६ वर्ष व्यतीत हुए हैं बल्कि यही कहा जायगा कि २४६८ वर्ष हुए हैं । अतः 'शकराजा' का शालिवाहन राजा अर्थ करनेवालोंके निर्णयानुसार वर्तमानमें प्रचलित वीरनिर्वाण सम्वत् २४६८ गताब्द के रूपमें है और उसमें गणनानुसार दो वर्पका कोई अन्तर नहीं है-वह अपने स्वरूपमें यथार्थ है । अस्तु ।
त्रिलोकमारकी उक गाथाको उद्धत करके और 'शकराज' शब्दके सम्बन्धमे विद्वानोंके दो मतभेदोंको बतलाकर, शास्त्रीजीने लिखा है कि "इन दोनों पक्षों में कौनसा ठीक है, यही समालोचनाका विषय है ( उभयोरनयोः पक्षयो. कतरो याथातथ्यमुपगच्छतीति ममालोचनीयः )," और इसतरह दोनों पक्षोंके सत्यासत्यके निर्णयकी प्रतिज्ञा की है। इस प्रतिज्ञा तथा लेखके शीर्षकमें पड़े हुए 'समालोचना' शब्दको और दूसरे विद्वानोंपर किये गये तीव्र आक्षेपको देख कर यह आशा होती थी कि शास्त्रीजी प्रकृत विषयके मंबन्धमे गंभीरताके माथ कुछ गहरा विचार करेगे, किसने कहाँ भूल की है उसे बतलाएंगे और चिरकालसे उलझी हुई समस्याका कोई ममुचित हल करके रखेंगे। परन्तु प्रतिज्ञाके अनन्तरके वाक्य और उसकी पुष्टिमें दिये हुए आपके पाँच प्रमाणोंको देखकर वह सब आशा धूल में मिल गई, और यह स्पष्ट मालूम होने लगा कि आप प्रतिज्ञाके दूसरे क्षरण ही निर्णायकके पासनसे उत्तरकर एक पक्षके साथ जा मिले हैं अथवा तराजूके एक पलड़े जा बैठे हैं और वहाँ खड़े होकर यह कहने लगे हैं कि हमारे पक्षके अमुक व्यक्तियोंने जो बात कही है वही ठीक है; परन्तु वह क्यों ठीक है ? कैसे ठीक है ? और दूसरोंकी बात ठीक क्यों नहीं है ? इन