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जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश विद्वानोंने भी इस शासनभेदको माना तथा उसका समर्थन किया है, यह और भी विशेषता है।
श्वेताम्बर-मान्यता । श्वेताम्बरोंके यहां भी जनतीर्थंकरोंके शासनभेदका कितना ही उल्लेख मिलता है, जिसके कुछ नमूने इस प्रकार हैं:
(१) 'अावश्यकनियुक्ति' में, जो भद्रबाहु श्रुतकेवलीकी रचना कही जाती है, दो गाथाएं निम्नप्रकारसे पाई जाती है--
सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । मझिमयाण जिणाणं कारणजाए पडिक्कमणं ।।१२४४।। बावीसं तित्थयरा सामाइयसंजमं उवइसति । छेओवट्ठावणयं पुण वयन्ति उसमो य वीरो य ।।१२४६।।
ये गाथाएँ साधारणमे पाठभेदके साथ, जिमसे कोई अर्थभेद नहीं होता, वे ही है जो 'मूलाचार' के ७वें अध्यायमें क्रमश: नं० १२५ और ३२ पर पाई जाती है। और इमलिये, इस विषयमें, नियुक्तिकार और मूलाचारके कर्ता श्रीवट्टकेराचार्य दोनोंका मत एक जान पड़ता है।
(२) 'उत्तराध्ययनमूत्र' में 'केशि-गौतम-संवाद' नामका एक प्रकरण (२३वा अध्ययन) है, जिसमें मबमे पहले पार्श्वनाथके शिष्य (तीर्थ शिष्य) केशी स्वामीने महावीर-शिष्य गौतम गणधरसे दोनों तीर्यकरोंके शासनभेदका कुछ उल्लेख करते हुए उसका कारगा दर्याफ्त किया है और यहाँतक पूछा है कि धर्मकी इस द्विविधप्ररूपरणा अथवा मतभेद पर क्या तुम्हें कुछ अविश्वाम या संशय नहीं होता है ? तब गौतमस्वामीने उसका समाधान किया है । इस संवादके कुछ वाक्य (भावविजयगणीकी व्याख्यासहित ) इस प्रकार है:
चा उज्जामो अ जो धम्मो, जो इमो पंचमिक्खियो। देसिओ वड्ढमाणेणं, पासेण य महामुग्णी ॥ २३ ।।
व्याख्या-चतुर्यामो हिंसानृतस्तेयपरिग्रहोपरमात्मक-व्रतचतुष्करूपः, पंचशिक्षितः स एव मैथुनविरतिरूपपंचमहाव्रतान्वितः ॥२३॥
* 'कारणाजाते' अपराध एवोत्पन्ने सति प्रतिक्रमणं भवति- इति हरिभद्रः ।