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श्रीकुन्दकुन्दाचार्य और उनके प्रन्थ - ६१ जैन समाजमें समान प्रादरकी दृष्टिसे देखे जाते है । पहलेका विपय ज्ञान, ज्ञेय
और चारित्ररूप तत्व-त्रयके विभागसे तीन अधिकारोंमें विभक्त है, दूसरेका विषय शुद्ध प्रात्मतत्त्व है और तीसरेका विषय कालद्रव्यसे भिन्न जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश नामके पाँच द्रव्योंका सविशेष-रूपसे वर्णन है । प्रत्येक ग्रंथ अपने-अपने विषयमें बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं प्रामाणिक है । हरएक का यथेष्ट परिचय उस-उस ग्रंथको स्वयं देखने से ही सम्बन्ध रखता है। ___ इनपर अमृतचन्द्राचार्य और जयसेनाचार्यकी खास संस्कृत टीकाएं हैं, तथा बालचन्द्रदेवकी कन्नड टीकाएँ भी है, और भी दूसरी कुछ टीकाएँ प्रभाचन्द्रादिकी संस्कृत तथा हिन्दी आदिकी उपलब्ध हैं । अमृतचंद्राचार्यकी टीकानुसार प्रवचनसारमें २७५ समयसारमें ४१५ और पंचास्तिकायमें १७३ गाथाएँ है; जब कि जयसेनाचार्यकी टीकाके पाठानुसार इन ग्रंथोंमें गाथाओंकी संख्या क्रमश: ३११, ४३६ १८१ है । संक्षेपमें, जैनधर्मका मर्म अथवा उसके तत्त्वज्ञानको समझाके लिये ये तीनों ग्रंथ बहुत ही उपयोगी हैं।
४.नियमसार--कुन्दकुन्दका यह ग्रंथ भी महत्त्वपूर्ण है और अध्यात्मविषयको लिये हुए है। इसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको नियम-नियमसे किया जानेवाला कार्य-एवं मोक्षोपाय बतलाया हैं और मोक्षके उपायभूत मम्यग्दर्शनादिका स्वरूपकथन करते हुए उनके अनुष्ठानका तथा उनके विपरीत मिथ्यादर्शनादिके त्यागका विधान किया है और इसीको (जीवनका) सार निर्दिष्ट किया है । इस ग्रन्थपर एकमात्र संस्कृत टीका पद्मप्रभमलधारिदेवकी उपलब्ध है और उसके अनुसार ग्रन्थकी गाथा-संख्या १८७ है । टीकामें मूलको द्वादश श्रुतस्कन्धरूप जो १२ अधिकारोंमें विभक्त किया है वह विभाग मूलकृत नहीं है-मूल परसे उसकी उपलब्धि नहीं होती, मूलको समझने में उससे कोई मदद भी नहीं मिलती और न मूलकारका वैसा कोई अभिप्राय ही जाना जाता है । उसकी सारी जिम्मेदारी टीकाकारपर है । इस टीकाने मूलको उल्टा कठिन कर दिया है । टीकामें बहुधा मूलका आश्रय छोड़कर अपना ही राग अलापा गया है-मूलका स्पष्टीकरण जैसा चाहिये था वैसा नहीं किया । टीकाके बहुतसे वाक्यों और पद्योंका सम्बन्ध परस्परमें नहीं मिलता । टीकाकारका प्राशय अपनी गद्य-पद्यात्मक काव्यशक्तिको प्रकट करनेका