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जैनतीर्थकरोंका शासनभेद
७५ गुण । इसीसे सर्व समयोंके मूलगुण कभी एक प्रकारके नहीं हो सकते । किसी समयके शिष्य संक्षेपप्रिय होते हैं अथवा थोड़ेमें ही समझ लेते हैं और किसी समयके विस्ताररुचिवाले अथवा विशेष खुलासा करनेपर समझनेवाले । कभी लोगोंमें ऋजुजडताका अधिक संचार होता है, कभी वक्रजडताका और कभी इन दोनोंसे अतीत अवस्था होती है। किसी समयके मनुष्य स्थिरचित्त, दृढबुद्धि और बलवान होते हैं और किसी समयके चलचित्त, विस्मरणशील और निर्बल । कभी लोकमें मूढता बढ़ती है और कभी उसका ह्रास होता है । इसलिये जिस समय जैसी जैसी प्रकृति और योग्यताके शिष्योंकी-उपदेशपात्रोंकी-बहुलता होती है उस उस वक्तकी जनताको लक्ष्य करके तीर्थंकरोंका उसके उपयोगी वैसा ही उपदेश तथा वैसा ही व्रत-नियमादिकका विधान होता है। उसीके अनुसार मूलगुणोंमें भी हेरफेर हुअा करता है। परन्तु इस भिन्न प्रकारके उपदेश, विधान या शासनमें परस्पर उद्देश्य-भेद नहीं होता । समस्त जैन तीर्थंकरोंका वही मुख्यतया एक उद्देश्य 'आत्मासे कममलको दूर करके उसे शुद्ध, सुखी, निर्दोष और स्वाधीन बनाना' होता है । दूसरे शब्दोंमें यों कहिये कि संसारी जीवोंको मंमार-रोग दूर करनेके मार्गपर लगाना ही जैनतीर्थक गेंके जीवनका प्रधान लक्ष्य होता है । अस्तु । एक रोगको दूर करनेके लिये जिस प्रकार अनेक औषधियाँ होती हैं और वे अनेक प्रकारसे व्यवहारमें लाई जाती हैं; रोग शान्तिके लिये उनमेसे जिस वक्त जिस औपधिको जिस विधिसे देनेकी ज़रूरत होती है वह उस वक्त उसी विधिसे दी जाती हैइसमें न कुछ विरोध होता है और न कुछ बाधा आती है । उसी प्रकार संसाररोग या कर्म-रोगको दूर करनेके भी अनेक साधन और उपाय होते हैं, जिनका अनेक प्रकारसे प्रयोग किया जाता है । उनमेंसे तीर्थकर भगवान् अपनी अपनी समयकी स्थितिके अनुसार जिस जिस उपायका जिस जिस रीतिसे प्रयोग करना उचित समझते हैं उसका उसी रीतिसे प्रयोग करते हैं। उनके इस प्रयोगमें किसी प्रकारका विरोध या बाघा उपस्थित होनेकी संभावना नहीं हो सकती। इन्हीं सब बातोंपर मूलाचारके विद्वान् प्राचार्यमहोदयने, अपने ऊपर उल्लेख किये हुए वाक्यों-द्वारा अच्छा प्रकाश डाला है और अनेक युक्तियोंसे जैनतीर्थकरोंके शासनभेदको भले प्रकार प्रदर्शित और सूचित किया है । इसके सिवाय, दूसरे