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जैन तीर्थंकरोंका शासनभेद
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जैन समाज में, श्रीवट्टकेराचार्यका बनाया हुआ 'मूलाचार' नामका एक यत्याचार-विषयक प्राचीन ग्रन्थ सर्वत्र प्रसिद्ध है । मूलग्रन्थ प्राकृत भाषामें है, और उस पर वसुनन्दी संद्धान्तिककी बनाई हुई 'श्राचारवृत्ति' नामकी एक संस्कृत टीका भी पाई जाती है । इस ग्रन्थमें, सामायिकका वर्णन करते हुए, ग्रन्थकर्तामहोदय लिखते है:
बावीसं तित्रा सामाइयं संजम उवदिसंति । छेदोद्वावरियं पुरा भयवं उसहो य वीरो य ॥ ७-३२ ॥
अर्थात् प्रजितसे लेकर पार्श्वनाथ पर्यन्त बाईस तीर्थकरोंने 'सामायिक' संयमका और ऋषभदेव तथा महावीर भगवानने 'छेदोपस्थापना' संयमका उपदेश दिया है।
यहाँ मूल गाथामें दो जगह 'च' (य) शब्द श्राया है। एक चकारसे परिहारविशुद्धि प्रादि चारित्रका भी ग्रहण किया जा सकता है। और तब यह निष्कर्ष निकलता है कि ऋषभदेव और महावीर भगवानने सामायिकादि पाँच प्रकारसे चारित्रका प्रतिपादन किया है, जिसमें छेदोपस्थापनको यहां प्रधानता है । शेष वाईस तीर्थंकरोंने केवल सामायिक चारित्रका या छेदोपस्थापनाको छोड़कर शेष सामायिकादि चार प्रकारके चारित्रका प्रतिपादन किया है । अस्तु ।
प्रादि र मन्तके दोनों तीर्थंकरोंने छेदोपस्थापन संयमका प्रतिपादन क्यों किया है? इसका उत्तर प्राचार्यमहोदय श्रागेकी दो गायामों में इस प्रकार देते हैं: