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जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
अब रही शास्त्रीजीकी यह बात कि दक्षिण देशमें महावीरशक, विक्रमशक और क्रिस्तकके रूपमें भी 'शक' शब्दका प्रयोग किया जाता है, इससे भी उनके प्रतिपाद्य विषयका कोई समर्थन नहीं होता। वे प्रयोग तो इस बातको सूचित करते हैं कि शालिवाहन शककी सबसे अधिक प्रसिद्धि हुई है और इस लिये बादको दूसरे सन् - संवतों के साथ भी 'शक' का प्रयोग किया जाने लगा और वह मात्र 'वत्सर' या 'संवत्' अर्थका वाचक हो गया । उसके साथ लगा हुआ महावीर, विक्रम या क्रिस्त विशेषरण ही उसे दूसरे अर्थ में ले जाता है, खाली 'शक' या 'शकराज' शब्दका अर्थ महावीर, विक्रम अथवा क्रिस्त ( क्राइस्ट = ईसा ) का या उनके सन् संवतोंका नही होता । त्रिलोकसारकी गाथामें प्रयुक्त हुए शकराज शब्दके पूर्व चूंकि 'विक्रम' विशेषण लगा हुआ नहीं है, इस लिये दक्षिण देशकी उक्त रूढिके अनुसार भी उसका अर्थ 'विक्रमराजा' नहीं किया जा सकता ।
ऊपरके इस संपूर्ण विवेचनपरसे स्पष्ट है कि शास्त्रीजीने प्रकृत विषयके सम्बन्धमें जो कुछ लिखा है उसमे कुछ भी सार तथा दम नही है । आशा है शास्त्रीजीको अपनी भूल मालूम पड़ेगी, और जिन लोगोंने आपके लेखपरमे कुछ गलत धारणा की होगी वे भी इस विचारलेखपरसे उसे सुधारनेमे समर्थ हो सकेंगे ।