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जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश ऋजुकूलायास्तीरे शालद्रुमसंश्रिते शिलापट्टे । अपराह्न षष्ठणास्थितस्य खलु जृम्भकाग्रामे ॥ ११ ॥ वैशाखसितदशम्यां हस्तोत्तरमध्यमाश्रिते चन्द्रे । क्षपकश्रेण्यारूढस्योत्पन्न केवलज्ञानम् ।। १२ ।।
___-श्रीपूज्यपाद-सिद्धिभक्तिः वइसाहसुद्धदसमी-माघा-रिक्वम्हि वीरणाहस्स । रिजुकूलणदीतीरे अवरण्हे केवलं गाणं ॥
-तिलोयपण्णत्ती ४-७०१ जंभिय-वहि उजुवालिय तीर वियावत्त सामसाल अहे । छ?णुक्कुडुयस्स उ उप्पएणं केवलं गाणं ।।
-आवश्यकनियुक्ति ५२६ पृ० २२७ जहाँ केवलज्ञान उत्पन्न होता है वहाँ उसकी उत्पत्तिके अनन्तर, देवतागरण आते हैं, भूत-भविष्यत् वर्तमानरूप सकल चराऽचरके ज्ञाता केवलज्ञानी जिनेन्द्रकी पूजा करते हैं-महिमा करते हैं और उनके उपदेशके लिये शकाज्ञामे ममवसरण-सभाकी रचना करते हैं , ऐसी साधारण जैन मान्यता है । इस मान्यताके अनुसार जुभकाके पास ऋजुकूला नदीके किनारे बैसाख सुदि दगमीको देवतागरणने आकर वीरभगवानकी पूजाकी-महिमा की और उनके उपदेशके लिये-तीर्थकी प्रवृत्तिके निमित्त~-ममवसरण-मभाकी मुष्टि भी की, यह स्वतः फलित हो जाता है । परन्तु इस प्रथम ममवमरणमें वीरभगवानका शामनतीर्थ प्रवतित नहीं हुआ, यह बात श्वेताम्बर सम्प्रदायको भी मान्य है, जैसा कि उनके निम्न वाक्योंमे प्रकट है
तित्थं चा उच्चएणो संघो सो पढमाए समोसरणे । उप्पएणो उ जिणाणं, वीरजिगिदस्स बीयम्मि ।।
-प्रावश्यकनियुक्ति, २६५ पृ० १४० + ताहे सक्कारणाए जिरणाग सयलारण समवसरणारिग ।
विक्किरियाए धनदो विरएदि विचित्तरूवेहि ॥ --तिलोयप० ४-७१० * केवलस्य प्रभावेण सहसा चलितासनाः । प्रागत्य महिमां चक्रुस्तस्य सर्वे सुराऽसुराः । ---जिनसेन-हरिवंशपु० २-६०