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वीरनिर्वाण-संवत्की समालोचनापर विचार ५५
सुन्न-मुणि-वेय-जुत्तो विक्कमकालाउ जिणकालो ।। यहाँ पर एक प्राचीन दिगम्बर वाक्य और भी उद्धृत किया जाता है जो वीरनिर्वाणसे विक्रमकालकी उत्पत्तिको स्पष्टरूपसे ४७० वर्ष बाद बतलाता है
और कविवर वीरके, संवत् १०७६ में बनकर समाप्त हुए, जम्बूस्वामिचरितमें पाया जाता है
वरिसाणसयचउक्कं सत्तरिजुत्तं जिणेंदवीरस्स ।
णिव्याणा उववण्णे विक्कमकालस्स उप्पत्ती ।। जब वीरनिर्वाणकाल और विक्रमकालके वर्षों का अन्तर ४७० है तब निर्वाणकालमे ६०५ वर्ष बाद होने वाले शक राजा अथवा शककालको विक्रमराजा या विक्रमकाल कमे कहा जा सकता है ? इमे सहृदय पाठक स्वयं समझ सकते हैं। वैसे भी 'शक' शब्द आम तौर पर गालिवाहन राजा तथा उसके संवत्के लिये व्यवहृत होता है, इस बातको शास्त्रीजीने भी स्वयं स्वीकार किया है, और वामन शिवराम आप्टे (V. S. APTE) के प्रसिद्ध कोषमें भी इसे Specially. applied to Salivahan जैसे शब्दोंके द्वारा शालिवाहनराजा तथा उसके संवत् ( cra) का वाचक बतलाया है। विक्रमराजा 'शक' नहीं था, किन्तु 'शकारि' = 'शकशत्रु था, यह बात भी उक्त कोषसे जानी जाती है। इसलिये जिन जिन विद्वानोंने 'शकराज' शब्दका अर्थ 'शकराजा' न करके 'विक्रमराजा' किया है उन्होंने जरूर ग़लती खाई है। और यह भी संभव है कि त्रिलोकसारके मंस्कृत-टीकाकार माधवचन्द्रने 'शकराजो' पदका अर्थ शकराजा ही किया हो, बादको ‘शकराज:' से पूर्व 'विक्रमांक' शब्द किसी लेखककी गलतीसे जुड़ गया हो और इस तरह वह गलती उत्तरवर्ती हिन्दी टीकामें भी पहुँच गई हो, जो प्राय: संस्कृत टीकाका ही अनुसरण है। कुछ भी हो, त्रिलोकसार को उक्त गाथा नं० ८५० में प्रयुक्त हुए 'शकराज' शब्दका अर्थ शकशालिवाहनके मिवाय और कुछ भी नहीं है, इस बातको मैंने अपने उक्त 'भगवान् महावीर
और उनका समय' शीर्षक निबन्धमें भले प्रकार स्पष्ट करके बतलाया है, और भी दूसरे विद्वानोंकी कितनी ही आपत्तियोंका निरसन करके सत्यका स्थापन
किया है।