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जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
के अन्तरको १३६ वर्षका घोषित किया है । परन्तु शास्त्रीजीका यह लिखना ठीक नहीं है- -न तो प्रचलित विक्रम तथा शक संवत्की वह संख्या ही ठीक है जो आपने उल्लेखित की है और न दोनों संवतोंमें १३६ वर्षका अन्तर ही पाया जाता है, बल्कि अन्तर १३५ वर्षका प्रसिद्ध है और वह प्रापके द्वारा उल्लिखित विक्रम तथा शक संवतोंकी संख्याओं ( १९६६ - १८६४ = १३५ ) से भी ठीक जान पड़ता है। बाकी विक्रम संवत् १६६६ तथा शक संवत् १८६४ उस समय तो क्या अभी तक प्रचलित नहीं हुए हैं- काशी श्रादिके प्रसिद्ध पंचांगोंमें वे क्रमश: १६६८ तथा १८६३ ही निर्दिष्ट किये गये है । इस तरह एक वर्षका अन्तर तो यह सहज हीमें निकल आता है । और यदि इधर सुदूर दक्षिण देशमें इस समय विक्रम संवत् १६६६ तथा शक संवत् १८६४ ही प्रचलित हो, जिसका अपनेको ठीक हाल मालूम नहीं, तो उसे लेकर शास्त्रीजीको उत्तर भारतके विद्वानोंके निर्णयपर आपत्ति नहीं करनी चाहिये थी— उन्हें विचारके अवसरपर विक्रम तथा शक संवत्की वही संख्या ग्रहरण करनी चाहिये थी जो उन विद्वानोंके निर्णयका आधार रही है और उस देशमें प्रचलित है जहां वे निवास करते हैं । ऐसा करने पर भी एक वर्षका अन्तर स्वतः निकल जाता । इसके विपरीत प्रवृत्ति करना विचार नीतिके विरुद्ध है ।
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अब रही दूसरे वर्ष अन्तरकी बात, मैंने और कल्याणविजयजीने अपने अपने उक्त निबन्धों में प्रचलित निर्वाण संवत्के कसमूहको गत वर्षोंका वाचक बतलाया है - ईसवी सन् आदिकी तरह वर्तमान वर्ष का द्योतक नही बतलायाऔर वह हिसाब महीनों की भी गणना साथमें करते हुए ठीक ही है । शास्त्रीजीने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया और ६०५ के साथमे शक संवत्की विवादापन्न संख्या १८६४ को जोड़कर वीरनिर्वाण-संवत्को २४६९ बना डाला है ! जबकि उन्हें चाहिये था यह कि वे ६०५ वर्ष ५ महीने में शालिवाहन शकके १८६२ वर्षोंको जोड़ते जो काशी प्रादिके प्रसिद्ध पंचाङ्गानुसार शक सम्वत् १८६३ के प्रारम्भ होनेके पूर्व व्यतीत हुए थे, और इस तरह चैत्रशुक्ला प्रतिपदा के दिन वीरनिर्वाणको हुए २४६७ वर्ष ५ महीने बतलाते। इससे उन्हें एक भी वर्षका अन्तर कहने के लिये अवकाश न रहता; क्योंकि ऊपरके पांच महीने चालू वर्षके हैं, जब तक बारह महीने पूरे नहीं होते तब तक उनकी गणना वर्ष में नहीं