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जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
सब बातोंके निर्णयको आपने एकदम भुला दिया है !! यह निर्णयकी कोई पद्धति नहीं और न उलझी हुई समस्याओं को हल करनेका कोई तरीक़ा ही है । आपके वे पंच प्रमारण इस प्रकार हैं ----
है
(१) दिगम्बर जैनसंहिताशास्त्र के संकल्प - प्रकरण में विक्रमराजाका ही उल्लेख पाया जाता है, शालिवाहनका नहीं ।
(२) त्रिलोकसार ग्रन्थकी माधवचन्द्र - त्रैविद्यदेवकृत संस्कृत टीकामें शकराज शब्दका अर्थ विक्रम राजा ही उल्लिखित हैं ।
(३) पं० टोडरमलजी कृत हिन्दी टीकामें इस शब्दका अर्थ इस प्रकार है— "श्री वीरनाथ चौबीसवाँ तीर्थकरको मोक्ष प्राप्त होनेतें पीछे छपाँच वर्ष पांच मास सहित गए विक्रमनाम शकराज हो है । बहुरि तातें उपरि च्यारि नव तीन इन अंकनि करि तीनसै चौरारणवै वर्ष और सात मास अधिक गए कल्की हो है". . ८५०
इस उल्लेखसे भी शकराजाका अर्थ विक्रमराजा ही सिद्ध होता है ।
(४) मिस्टर राइस - सम्पादित श्रवणबेलगोलकी शिलाशासन पुस्तक में १४१ नं० का एक दानपत्र है, जिससे कृष्णराज तृतीय ( मुम्मडि, कृष्णराज घोडेयर ) ने आजसे १११ वर्ष पहले क्रिस्ताब्द १८३० में लिखाया है । उसमें निम्न श्लोक पाए जाते हैं
" नानादेशनृपालमौलिविलसन्माणिक्य रत्नप्रभा । भास्वत्पाद सरोजयुग्मरुचिरः श्रीकृष्णराजप्रभुः ।। श्रीकर्णाटकदेशभासुर महीशूरस्थसिंहासनः । श्रीचामक्षितिपालसूनुरवनौ जीयात्सहस्त्रं समाः ।। स्वस्ति श्रीवर्द्धमानाख्ये, जिने मुक्ति गते सति । वह्निरंधाब्धिनेत्रैश्च ( २४६३ ) वत्सरेषु मितेषु वै ॥ विक्रमाकसमा स्विं दुगजसा मजहस्तिभि: (१८८८ ) । सतीषु गणनीयासु गणितज्ञ - बुधैस्तदा || शालिवाहनवर्षेषु नेत्रबाणन मेंदुभि: (१७५२ ) । प्रमितेषु विकृत्यब्दे श्रावणे मासि मंगले ॥" इत्यादि