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श्रीवीरनिर्वाण सम्वत् की समालोचनापर विचार
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विद्वानोंने इसपरसे अपनी भूलको सुधार भी लिया था । मुनि कल्याण विजयजीने सूचित किया था - ' - " आपके इस लेखकी विचार सरणी भी ठीक है ।" और पं० नाथूरामजी प्रेमीने लिखा था - "आपका वीरनिर्वाण-संवत् वाला लेख बहुत ही महत्वका है और उससे अनेक उलझनें सुलझ गई हैं ।" इस निबन्धके निर्णयानुसार ही 'अनेकान्त' में 'वीर - निर्वारण संवत्' का देना प्रारम्भ किया था, जो अब तक चालू है । इतने पर भी शास्त्रीजीका मेरे ऊपर यह आरोप लगाना कि मैंने 'बिना विचार किये ही' (गतानुगतिक रूपमे) दूसरों के मार्गका अनुसरण किया है कितना अधिक अविचारित, अनभिज्ञतापूर्ण तथा आपत्तिके योग्य है। और उसे उनका 'अतिसाहस' के सिवाय और क्या कहा जा सकता है, इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं। आशा है शास्त्रीजीको अपनी भूल मालूम पड़ेगी और वे भविष्य में इस प्रकारके निर्मूल आक्षेपोंसे बाज़ प्राएँगे ।
अब में लेखके मूल विषयको लेता हू और उस पर इस समय सरसरी तौर पर अपना कुछ विचार व्यक्त करता हूं । ग्रावश्यकता होनेपर विशेष विचार फिर किसी समय किया जायगा ।
शास्त्रीजीने त्रिलोकसारकी 'परण- छम्मद वस्सं पग्णमामजुद' नामकी प्रसिद्ध गाथाको उद्धृत करके प्रथम तो यह बतलाया है कि इस गाथामें उल्लिखित ‘शकराज' शब्दका अर्थ कुछ विद्वान तो शालिवाहन राजा मानते हैं और दूसरे कुछ विद्वान विक्रमराजा । जो लोग विक्रमराजा अर्थ मानते है उनके हिसाब से इस समय (गन दीपमालिकामे पहनेछ ) वीर निर्वारण सवत् २६०४ आता है, और जो लोग शालिवाहन राजा श्रयं मानते है उनके प्रथांनुसार वह २४६६ बैठता है, परन्तु वे लिखते है २४६७, इस तरह उनकी गग्गनामे दो वर्षका अन्तर ( व्यत्यास) तो फिर भी रह जाता है। साथ ही अपने लेखके समय प्रचलित विक्रम संवत्को १६६६ और शालिवाहनशकको १८६४ बतलाया है तथा दोनों
* शास्त्रीजीका लेख गत दीपमालिका ( २० अक्तूबर १९४९ ) से पहलेका लिखा हुआ है, अतः उनके लेखमें प्रयुक्त हुए 'सम्प्रति' (इस समय ) शब्दका वाच्य गत दीपमालिका पूर्वका निर्वारणसंवत् है, वही यहाँपर तथा ग्रागे भी 'इस समय' शब्दका वाच्य समझना चाहिये- कि इस लेख लिखनेका समय ।