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जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश
इसलिये यह शासन सचमुच ही 'सर्वोदय-तीर्थ' के पदको प्राप्त है - इस पदके योग्य इसमें सारी ही योग्यताएँ मौजूद हैं- हर कोई भव्य जीव इसका सम्यक् आश्रय लेकर संसार समुद्रसे पार उतर सकता है।
परन्तु यह समाजका औौर देशका दुर्भाग्य है जो प्राज हमने - जिनके हाथों दैवयोग से यह तीर्थं पड़ा है- इस महान् तीर्थकी महिमा तथा उपयोगिताको भुला दिया है; इसे अपना घरेलू, क्षुद्र या प्रसर्वोदय तीर्थका-सा रूप देकर इसके चारों तरफ ऊँची ऊँची दीवारें खड़ी कर दी हैं और इसके फाटकमें ताला डाल दिया है। हम लोग न तो खुद ही इससे ठीक लाभ उठाते हैं और न दूसरों को लाभ उठाने देते हैं - महज अपने थोड़ेसे विनोद अथवा क्रीडाके स्थल रूपमें ही हमने इसे रख छोड़ा है और उसीका यह परिणाम है कि जिस 'सर्वोदय - तीर्थ' पर दिन रात उपासकोंकी भीड़ और यात्रियोंका मेलासा लगा
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३. “ मलेच्छभूमिजमनुप्यारणां सकलसंयमग्रहणं कथं भवतीति नाशंकितव्यं । दिग्विजयकाले चक्रवर्तिना सह प्रार्यखण्डमागतानां म्लेच्छराजानां चक्रवत्र्यादिभिः मह जातवैवाहिकसम्बन्धानां संयमप्रतिपत्तेरविरोधात् । अथवा तत्कन्यानां चक्रवर्त्यादिपरिणीतानां गर्भेषूत्पन्नस्य मातृपक्षापेक्षया म्लेच्छव्यपदेशभाजः संयमसंभवान् नथाजातीयकानां दीक्षाहंत्वे प्रतिषेधाभावात् ॥ " - लब्धिसारटीका ( गाथा १६३वी )
नोट - म्लेच्छोंकी दीक्षा - योग्यता, सकल संयम-प्रहरणकी पात्रता और उनके साथ वैवाहिक सम्बन्धादिका यह सब विघान जयधवल सिद्धान्तमें भी इसी क्रम प्राकृत और संस्कृत भाषामें दिया है। वहींसे भाषादिरूप थोड़ासा शब्द-परिवर्तन करके लब्धिसारटीकामें लिया गया मालूम होता है। जैसा कि जयघवलके निम्न शब्दोंसे प्रकट है:
"जइ एवं कुदो तत्थ संजमग्गहरंगसंभवो त्ति णासंकरिणज्जं । दिसा विजयपयट्टचक्कवद्विखंधावारेण सह मज्झिमखंडमागयाणं मिलेच्छरायारणं तत्य चक्कवट्टिप्रदीहि सह जादवेवाहियसंबंधारणं संजमपडिवत्तीए विरोहाभावादो । ग्रहवा तत्तत्कन्यकानां चक्रवर्त्यादिपरिणीतानां गर्भेषूत्पन्ना मातृपक्षापेक्षया स्वयमकर्मभूमिजा इतीह विवक्षिताः ततो न किचिद्विप्रतिषिद्धं । तथाजातीयकानां दीक्षाहं त्वे प्रतिषेधाभावादिति ।" - जयधवल, धारा प्रति, पत्र ८२७-२८