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(१०) ये अन्वय हुआ और व्यतिरेक उस्का नाम है कि काष्ट प्रमुख साधन न हो तो कहदेना कि आगभी नहीं हो सकती । इसी तरहसे शरीर ज्ञानका कारण है और ज्ञान कार्य है। क्योंकि शरीरके होनेपर चैतन्यकी उपलब्धि होती है और इसके अभावो ज्ञानाभाव मालूम होता है। " अतःसिद्धं शरीरस्य काव्य जानमिति" वस इससे ज्ञान शरीरका कार्य सिद्ध होगया।
आस्तिक-आपका यह कहना ठीक नहीं है । क्योंकि मुडदे के शरीरकी हस्ति होनेपरभी चैतन्यका अभाव मालूम पड़ता है। अतः अन्वय व्यतिरेकपणे शरीरका कार्य ज्ञान नहीं हो सकता।
नास्तिक-आपका कथन बिलकुल अनुचित है क्योंकि वायु और तेज दो पदार्थोंका मुडदेके शरीरमें अभाव होनेसे उस्को हम शरीरही नहीं मानते हैं। वो तो थोथ मालूम पड़ता है। इसलिये चैतन्योपलब्धि नहीं होती । विशिष्टभूत संयोगकोही हम शरीर मानते हैं। क्योंकि अगर सिरफ शरीराकार मात्रमें ही चैतन्यता मानी जावे तो फिर दिवारपर चित्रे हुए घोडे हाथी वेल मनुष्य वगेरेके चित्रोंमेंभी चैतन्यताका प्रसंग आवेगा, इससे शरीरकाही कार्य चैतन्य ठीकहै । अतः चेतना संयुक्त शरीरमेंही " अहं प्रत्यय " ( मैं हूं ऐसा खयाल ) पैदा होता है, इस लिये प्रत्यक्ष प्रमाणसे आत्मा सिद्ध नहीं होता है। अनुमान नीचे मुजब समझें ! तथाहि